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November 02, 2025

Vicarious Liability: जब गलती किसी की, जिम्मेदारी किसी और की!

 



⚖️ प्रतिनिधिक दायित्व (Vicarious Liability)
 

 एक ऐसे सिद्धांत की, जो बताता है कि कभी-कभी गलती किसी और की होती है, लेकिन जिम्मेदारी किसी और की बनती है।


कानूनी दृष्टि से, यह वह स्थिति है जब एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के कृत्य या चूक के लिए उत्तरदायी ठहराया जाता है। खासकर तब, जब उनके बीच नियोक्ता और कर्मचारी (Employer–Employee) या प्रिंसिपल और एजेंट (Principal–Agent) का संबंध हो।


⚖️ सरल शब्दों में
 

अगर किसी कर्मचारी ने अपने काम के दौरान कोई गलत काम किया, तो उसका बोझ नियोक्ता पर भी आएगा — क्योंकि कानून मानता है कि कर्मचारी उसके निर्देश और नियंत्रण में काम कर रहा था।


⚖️ उदाहरण समझिए


● एक पिज्जा डिलीवरी ड्राइवर जल्दबाज़ी में किसी पैदल यात्री से टकरा जाता है — तो कंपनी पर मुआवज़े की जिम्मेदारी आएगी।


● किसी अस्पताल की नर्स मरीज को गलत दवा दे देती है — तो अस्पताल उस गलती के लिए उत्तरदायी होगा।


● या फिर किसी सिक्योरिटी कंपनी का गार्ड किसी व्यक्ति के साथ मारपीट कर देता है — तो कंपनी उस हानि की जिम्मेदार होगी।



⚖️ मूल सिद्धांत


"Qui facit per alium, facit per se" — जो किसी दूसरे के माध्यम से कार्य करता है, वह स्वयं कार्य करने के समान है।


इस सिद्धांत का उद्देश्य है — न्याय सुनिश्चित करना और पीड़ित व्यक्ति को मुआवज़ा दिलाना, ताकि कोई भी व्यक्ति केवल इसलिए न्याय से वंचित न हो जाए क्योंकि गलती करने वाला कर्मचारी था, कंपनी नहीं।

यही है प्रतिनिधिक दायित्व — एक ऐसा कानूनी सेतु जो जिम्मेदारी को वहां तक पहुंचाता है, जहां से नियंत्रण शुरू होता है।


October 31, 2025

"धारा 108 BSA: जब अपवाद साबित करना आरोपी का कर्तव्य बन जाता है"

 


धारा 108, Bharatiya Sakshya Adhiniyam (Burden of Proof as to Exceptions in Criminal Cases)



"भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 108 एक महत्वपूर्ण सिद्धांत को स्थापित करती है — अपवादों का लाभ तभी मिलेगा जब आरोपी स्वयं उन परिस्थितियों को साबित कर दे।"


किसी आपराधिक मुकदमे में सामान्यतः अभियोजन पक्ष (Prosecution) पर यह भार होता है कि वह आरोपी के अपराध को संदेह से परे सिद्ध करे।
परंतु जब आरोपी स्वयं यह दावा करता है कि उसका कृत्य किसी “सामान्य या विशेष अपवाद” (General or Special Exception) के अंतर्गत आता है —
तब साक्ष्य का बोझ अभियोजन से हटकर आरोपी पर स्थानांतरित हो जाता है।


⚖️ Legal Principle



धारा 108 कहती है —

When a person is accused of any offence, the burden of proving the existence of circumstances bringing the case within any General or Special Exception shall lie upon him.


अर्थात —
यदि आरोपी यह कहता है कि उसने अपराध नहीं बल्कि वैध कार्य किया, या उसका कृत्य अपवादात्मक परिस्थिति में हुआ — तो वह इन परिस्थितियों को साबित करेगा।


⚖️ Illustrations


1. Unsoundness of Mind (मानसिक अस्वस्थता):

यदि आरोपी A यह कहता है कि हत्या के समय वह मानसिक रूप से अस्वस्थ था, तो उसे यह सिद्ध करना होगा कि वह अपराध के समय अपने कृत्य की प्रकृति को समझने में अक्षम था।
(संदर्भ: धारा 84 भारतीय दंड संहिता / धारा 117 भारतीय न्याय संहिता 2023)


2. Grave and Sudden Provocation (अचानक उत्तेजना):

यदि आरोपी यह कहे कि उसने अचानक उकसावे में आकर अपराध किया — तो उस उत्तेजना की परिस्थितियों को प्रमाणित करना आरोपी का दायित्व है।


⚖️ Judicial View


न्यायालय यह अनुमान (presume) करेगी कि कोई भी अपवाद लागू नहीं है, जब तक कि आरोपी ऐसा प्रमाण न दे जिससे यह संभावना उत्पन्न हो जाए कि वह अपवाद लागू हो सकता है।


आरोपी को यह साबित करने की आवश्यकता नहीं कि अपवाद पूर्ण रूप से सिद्ध हो जाए — केवल इतना पर्याप्त है कि वह “संभावना” (probability) उत्पन्न करे।


⚖️ Conclusion

इस प्रकार, धारा 108 अभियोजन और बचाव के मध्य साक्ष्य के संतुलन (Balance of Proof) को स्पष्ट करती है।
जहां अपराध सिद्ध करना अभियोजन का कर्तव्य है, वहीं अपवादों का प्रमाण देना आरोपी की जिम्मेदारी।
यही न्याय का मूल सिद्धांत है — “Let the guilty be punished, but only after both sides bear their lawful burden.”



October 26, 2025

सुप्रीम कोर्ट का बड़ा फैसला: एससी-एसटी पर लागू नहीं होगा हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम

 



सुप्रीम कोर्ट के इस हालिया फैसले कहा कि हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 (Hindu Succession Act) अनुसूचित जनजातियों (Scheduled Tribes) पर स्वतः लागू नहीं होता, जब तक कि केंद्र सरकार इसकी अधिसूचना (notification) जारी न करे।


⚖️ मामला क्या था

यह विवाद हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट के वर्ष 2015 के एक निर्णय से जुड़ा था। हाईकोर्ट ने कहा था कि आदिवासी इलाकों में भी बेटियों को संपत्ति में वही अधिकार मिलने चाहिए जो हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के तहत मिलते हैं — यानी लड़का और लड़की दोनों को बराबर अधिकार

हाईकोर्ट का तर्क था कि ऐसा करने से सामाजिक असमानता और शोषण खत्म होगा, और यह संविधान के समानता के सिद्धांत के अनुरूप है।


⚖️ सुप्रीम कोर्ट का दृष्टिकोण


सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस संजय करोल और जस्टिस प्रशांत कुमार मिश्रा की खंडपीठ ने हाईकोर्ट का फैसला पलट दिया और कहा —


हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 2(2) स्पष्ट रूप से कहती है कि यह अधिनियम अनुसूचित जनजातियों पर लागू नहीं होता, जब तक केंद्र सरकार इसके लिए अधिसूचना जारी न करे।

अर्थात, जब तक केंद्र सरकार विधिवत अधिसूचना जारी नहीं करती, तब तक आदिवासी समुदायों में संपत्ति के बंटवारे के मामले उनकी परंपराओं और रीति-रिवाजों के अनुसार ही तय होंगे, न कि हिंदू कानून के अनुसार।



⚖️ कानूनी महत्व


यह फैसला संविधान के अनुच्छेद 342 के तहत “अनुसूचित जनजातियों” को मिली विशेष पहचान और स्वशासन की परंपराओं की रक्षा करता है।
सुप्रीम कोर्ट ने साफ कहा कि अदालतें किसी कानून को ऐसी जनजातियों पर लागू नहीं कर सकतीं, जिन पर संसद या केंद्र सरकार ने उसे लागू करने का निर्णय नहीं लिया हो।

संक्षेप में —

● हाईकोर्ट का निर्णय कानून से परे था।

 ● सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि एससी-एसटी एक्ट और हिंदू सक्सेशन एक्ट दोनों अलग हैं।

● हिंदू सक्सेशन एक्ट तब तक ट्राइब्स पर लागू नहीं होगा जब तक केंद्र अधिसूचना जारी न करे।


October 26, 2025

"High Court ने कहा – Cash Loan पर Check Bounce Case नहीं चलेगा!"

 


यह निर्णय हमारे देश की न्याय व्यवस्था और आर्थिक अनुशासन दोनों के लिए एक अहम संदेश लेकर आया है।
केरल हाईकोर्ट ने P.C. Hari बनाम Shine Varghese (2025) मामले में साफ कहा — 


₹20,000 से अधिक की नकद लेनदेन को अदालतें कानूनी नहीं ठहराएंगी, जब तक कि उसका उचित कारण साबित न किया जाए।  



मामला साधारण था — शिकायतकर्ता ने कहा कि उसने ₹9 लाख नकद उधार दिए, जिसके बदले में आरोपी ने चेक दिया जो बाउंस हो गया। ट्रायल कोर्ट और सेशन कोर्ट दोनों ने आरोपी को दोषी ठहराया, लेकिन हाईकोर्ट ने फैसला पलट दिया।


न्यायमूर्ति P.V. Kunhikrishnan ने कहा कि आयकर अधिनियम की धारा 269SS के तहत ₹20,000 से अधिक नकद उधार या जमा लेना-देना मना है। इस कानून का उद्देश्य है कि देश में काले धन और नकद लेनदेन को रोका जा सके।
अगर फिर भी कोई व्यक्ति इतनी बड़ी राशि नकद में लेता या देता है, तो वह खुद कानून तोड़ रहा है। ऐसे में वह अदालत से यह नहीं कह सकता कि “मेरा पैसा लौटाओ” क्योंकि वह पैसा कानूनी तरीके से दिया ही नहीं गया था।


जज ने यह भी कहा कि जब देश डिजिटल इंडिया की दिशा में बढ़ रहा है, तो अदालतें उन नकद सौदों को वैध नहीं मान सकतीं जो कानून के खिलाफ हैं। उन्होंने साफ शब्दों में लिखा


  अगर कोई व्यक्ति ₹20,000 से अधिक नकद देता है और फिर उस पर चेक लेता है, तो वह खुद जिम्मेदार है कि उसे पैसा वापस न मिले।  


इस फैसले का असर बड़ा है। अब से अगर किसी ने ₹20,000 से अधिक नकद उधार दिया और बाद में चेक बाउंस हो गया, तो धारा 138 N.I. Act के तहत केस नहीं चलेगा। जब तक यह साबित न किया जाए कि नकद लेनदेन का कोई उचित कारण था (जैसे किसी आपात स्थिति में)।


संक्षेप में — यह फैसला बताता है कि कानून केवल अपराधियों के लिए नहीं, बल्कि हर नागरिक के लिए समान है। अगर सरकार डिजिटल लेनदेन को बढ़ावा दे रही है, तो न्यायालय भी उसी दिशा में कदम बढ़ा रहे हैं। 


October 22, 2025

“सत्य की खोज में साक्ष्य की भूमिका — एक विधिक विश्लेषण”

  



भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 (Indian Evidence Act) के अंतर्गत साक्ष्य (Evidence) के कई प्रकार बताए गए हैं — हर प्रकार की अपनी कानूनी प्रकृति और उपयोगिता होती है। नीचे उनका क्रमवार विवरण दिया जा रहा है, ताकि  किसी भी मुकदमे में उचित साक्ष्य की पहचान कर सकें 


⚖️ मुख्य प्रकार के साक्ष्य (Types of Evidence under Indian Law)




⚖️ 1. Direct Evidence (प्रत्यक्ष साक्ष्य)


यह वह साक्ष्य होता है जो किसी तथ्य को सीधे सिद्ध करता है, किसी अनुमान की आवश्यकता नहीं होती।

उदाहरण:
– प्रत्यक्षदर्शी गवाह (Eye witness)
– CCTV में अपराध की रिकॉर्डिंग

कानूनी स्थिति:
ऐसे साक्ष्य सबसे मजबूत माने जाते हैं।



⚖️ 2. Circumstantial Evidence (परिस्थितिजन्य साक्ष्य)


 जब प्रत्यक्ष साक्ष्य न हो, तो परिस्थितियों की श्रृंखला से अपराध सिद्ध किया जाता है।

उदाहरण: खून लगे कपड़े, भागने का प्रयास, मृतक के साथ अंतिम बार देखा जाना।

सिद्धांत: परिस्थितियाँ इतनी मजबूत हों कि किसी अन्य निष्कर्ष की गुंजाइश न रहे।



⚖️ 3. Documentary Evidence (दस्तावेजी साक्ष्य)

 

कोई भी लिखित, मुद्रित, या इलेक्ट्रॉनिक दस्तावेज़ जो किसी तथ्य को सिद्ध करे।

प्रावधान:

  • Section 61 to 90, Evidence Act
    उदाहरण: अनुबंध (Contract), वसीयत (Will), रसीदें, बैंक स्टेटमेंट, इलेक्ट्रॉनिक मेल।


⚖️ 4. Oral Evidence (मौखिक साक्ष्य)

 

ऐसा साक्ष्य जो गवाह अपने ज्ञान या अनुभव के आधार पर अदालत के समक्ष मौखिक रूप से प्रस्तुत करता है।

प्रावधान:

  • Section 59–60, Evidence Act
    नियम: मौखिक साक्ष्य प्रत्यक्ष होना चाहिए — सुनी-सुनाई बात (Hearsay) आमतौर पर स्वीकार्य नहीं होती।


⚖️ 5. Primary Evidence (मूल साक्ष्य)

मूल दस्तावेज़ या वस्तु जो सीधे अदालत में प्रस्तुत की जाती है।

उदाहरण: अनुबंध का मूल कागज, असली रसीद, असली फोटो।

प्रावधान: Section 62, Evidence Act.



⚖️ 6. Secondary Evidence (द्वितीयक साक्ष्य)

जब मूल दस्तावेज़ उपलब्ध न हो, तब उसकी प्रति, फोटोकॉपी या प्रमाणित नकल पेश की जाती है।

प्रावधान: Section 63, Evidence Act.



⚖️ 7. Corroborative Evidence (पुष्टिकारक साक्ष्य)

 ऐसा साक्ष्य जो किसी अन्य साक्ष्य की विश्वसनीयता को बढ़ाता है।

प्रावधान: Section 157, Evidence Act.



⚖️ 8. Hearsay Evidence (सुनी-सुनाई साक्ष्य)

 जो गवाह स्वयं नहीं जानता बल्कि किसी और से सुना हो।
कानून: सामान्यतः यह अस्वीकार्य (inadmissible) होता है, क्योंकि यह अविश्वसनीय माना जाता है।



⚖️ 9. Electronic Evidence (इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य)

 कोई भी सूचना जो इलेक्ट्रॉनिक रूप में प्राप्त हुई हो।

प्रावधान: Section 65A और 65B, Evidence Act.

उदाहरण: ईमेल, व्हाट्सऐप चैट, सीसीटीवी फुटेज, डिजिटल दस्तावेज़।



⚖️ 10. Expert Evidence (विशेषज्ञ साक्ष्य)

 जब किसी विशेष ज्ञान या तकनीकी क्षेत्र से संबंधित तथ्य सिद्ध करने हों।

प्रावधान: Section 45, Evidence Act.

उदाहरण:
– डॉक्टर का पोस्टमार्टम रिपोर्ट
– हैंडराइटिंग या फिंगरप्रिंट एक्सपर्ट की राय।



⚖️ 11. Dying Declaration (मृत्युकालीन घोषणा)

 

जब कोई व्यक्ति मृत्यु के पहले किसी अपराध के संबंध में बयान देता है।

प्रावधान: Section 32(1), Evidence Act.

कानूनी स्थिति: यदि विश्वास योग्य हो तो यह अकेले ही अभियुक्त को दोष सिद्ध कर सकता है।



October 20, 2025

“चेक बाउंस पर 20% राशि देने का कानूनी प्रावधान”

 


⚖️  “चेक बाउंस पर 20% राशि देने का कानूनी प्रावधान” 


चेक बाउंस के मामलों में कानूनी प्रावधान, जिसमें अदालत अभियुक्त से मुकदमे की शुरुआत में ही चेक राशि का 20% पीड़ित व्यक्ति को देने का आदेश दे सकती है।


⚖️ Legal Background

कई बार लोग किसी लेन-देन में नकद रकम न देकर चेक दे देते हैं।
पर जब बैंक में वह चेक जमा होता है, तो कई बार वह बाउंस हो जाता है — यानी खाते में पर्याप्त रकम नहीं होती, सिग्नेचर गलत होते हैं, या खाता बंद होता है।

ऐसे में यह act of dishonour विश्वासघात और आर्थिक धोखाधड़ी की श्रेणी में आता है।
इसी स्थिति को नियंत्रित करने के लिए Negotiable Instruments Act, 1881 की धारा 138 लागू होती है।
यह धारा कहती है कि अगर किसी का चेक बाउंस हो जाता है, तो वह एक अपराध (offence) है, और पीड़ित व्यक्ति न्यायालय में परिवाद (complaint) दाखिल कर सकता है।


⚖️ नया प्रावधान – धारा 143(ए)

चेक बाउंस मामलों की बढ़ती संख्या और धीमी प्रक्रिया को देखते हुए संसद ने Section 143(A) जोड़ा।
इसके तहत, जब आरोपी व्यक्ति अदालत में पेश होता है,
तो न्यायालय उसे आदेश दे सकता है कि वह चेक राशि का 20% पीड़ित पक्ष को अंतरिम प्रतिकर (interim compensation) के रूप में तुरंत दे।


⚖️ उदाहरण से समझिए

मान लीजिए, किसी व्यक्ति ने किसी को ₹1,00,000 का चेक दिया।
चेक बाउंस हो गया।
पीड़ित ने कोर्ट में केस दायर किया।
जब आरोपी कोर्ट में उपस्थित होता है, तब कोर्ट कह सकती है कि —
"तुम्हें इस ₹1,00,000 की 20% राशि यानी ₹20,000 अभी पीड़ित को देनी होगी।"


⚖️ अगर आरोपी दोषमुक्त हो जाए

अगर केस में आरोपी निर्दोष साबित होता है,
तो अदालत यह 20% राशि वापस कराने का आदेश देती है।

लेकिन, अगर आरोपी दोषी पाया जाता है,
तो उसे बाकी की राशि, ब्याज और न्यायालय शुल्क तक भरना पड़ता है।


⚖️ अपील की स्थिति

अगर आरोपी सत्र न्यायालय में अपील करता है,
तो अपील पर सुनवाई तब तक नहीं होती जब तक वह कुल राशि का 20% कोर्ट के आदेश अनुसार नहीं भर देता।


⚖️ न्यायिक मंतव्य (Judicial Intention)

इस प्रावधान का मकसद साफ है —
“जो व्यक्ति चेक देता है, उसने किसी वैध लेन-देन के तहत ही दिया होगा।”
क्योंकि कोई भी व्यक्ति यूं ही किसी को चेक नहीं देता।
इसलिए कोर्ट मानती है कि पीड़ित पक्ष को प्रारंभिक राहत (early relief) मिलनी चाहिए।


यह कानून अब यह सुनिश्चित करता है कि
जो व्यक्ति चेक के भरोसे किसी को भुगतान करता है,
वह उस भरोसे को तोड़ने की कीमत पहले ही अदा करे
कानून कहता है —
"भरोसे से दिया गया चेक, जिम्मेदारी से निभाया जाए।"



October 17, 2025

बाल संरक्षण की ढाल "जब त्याग बन जाता है दंडनीय अपराध"

 



जब माता-पिता या अभिभावक, जिन्हें बच्चों की रक्षा करनी चाहिए, उसे असहाय छोड़ देते हैं — तो भारतीय न्याय संहिता की धारा 93 इसी अमानवीय कृत्य को दंडित करती है।


⚖️ कानूनी प्रावधान
 


यदि कोई पिता, माता या संरक्षक, जो 12 वर्ष से कम उम्र के बच्चे की देखभाल करता है, उस बच्चे को किसी स्थान पर जानबूझकर छोड़ देता है या त्याग देता है, इस इरादे से कि वह बच्चा सदा के लिए छोड़ दिया जाए,
तो ऐसा व्यक्ति सात वर्ष तक की कैद, जुर्माना, या दोनों से दंडित किया जा सकता है।


यह कानून सिर्फ़ परित्याग को अपराध नहीं मानता, बल्कि इसके पीछे के इरादे (intention) को भी देखता है।
अगर किसी ने बच्चे को छोड़ने का ऐसा कार्य इस सोच के साथ किया कि वह दोबारा कभी लौटकर न आए — तो यह “पूरी तरह से परित्याग” (wholly abandoning) कहलाता है।


⚖️ स्पष्टीकरण


अगर इस परित्याग के कारण बच्चे की मृत्यु हो जाती है, तो आरोपी पर केवल यह धारा नहीं लगेगी, बल्कि उसे हत्या (Murder) या आपराधिक मानव वध (Culpable Homicide) के लिए भी मुकदमे का सामना करना पड़ सकता है।


⚖️ Conclusion


कानून यह स्पष्ट संदेश देता है —
माता-पिता होना एक जिम्मेदारी है, अधिकार नहीं।
बच्चे को त्यागना, उसे जीवन के खतरे में डालना है — और यह अपराध है।


धारा 93 हमें याद दिलाती है कि समाज की संवेदनशीलता की शुरुआत, सबसे पहले अपने बच्चों की सुरक्षा से होती है।


October 15, 2025

गर्भ में पल रहे जीवन की कानूनी सुरक्षा

 


   

भारतीय न्याय संहिता की धारा 92 उस स्थिति पर लागू होती है जब किसी व्यक्ति के कृत्य से गर्भ में पल रहे “जीवित भ्रूण” (quick unborn child) की मृत्यु हो जाती है। यह धारा बताती है कि भ्रूण का जीवन भी उतना ही मूल्यवान है जितना किसी जन्मे हुए व्यक्ति का।


यदि कोई व्यक्ति ऐसा कार्य करता है जो,  परिस्थितियों में, यदि किसी व्यक्ति की मृत्यु कर देता, तो मानव वध (culpable homicide) कहलाता — और वही कार्य गर्भ में पल रहे भ्रूण की मृत्यु का कारण बनता है, तो ऐसे अपराधी को 10 वर्ष तक के कारावास और जुर्माने से दंडित किया जाएगा।   धारा 92, भारतीय न्याय संहिता 2023 


⚖️ उदाहरण

मान लीजिए कोई व्यक्ति किसी गर्भवती स्त्री को मारने के उद्देश्य से चोट पहुँचाता है। स्त्री तो जीवित बच जाती है, लेकिन उसके गर्भ में पल रहा बच्चा मर जाता है।
इस स्थिति में वह व्यक्ति इस धारा के अंतर्गत दोषी माना जाएगा, क्योंकि उसके कृत्य से एक जीवन समाप्त हुआ, भले ही वह जन्म से पहले था।

⚖️ कानूनी दृष्टि से महत्व


यह धारा यह संदेश देती है कि कानून भ्रूण के जीवन को भी मानव जीवन का दर्जा देता है।
यह न केवल गर्भवती स्त्री की सुरक्षा सुनिश्चित करती है, बल्कि उस नए जीवन की भी जो अभी जन्म नहीं ले पाया है।


धारा 92 न्याय और नैतिकता दोनों के बीच पुल का काम करती है। यह बताती है कि जीवन की सुरक्षा का अधिकार गर्भ में पलते भ्रूण से शुरू होता है, और उसकी मृत्यु भी कानून की नज़र में गंभीर अपराध है।


October 13, 2025

झूठी खबरों को फैलाने की सज़ा”

 


“ झूठी खबरों को फैलाने की सज़ा ”

  धारा 353, भारतीय न्याय संहिता 2023


आज सोशल मीडिया के माध्यम से फेक न्यूज का प्रसार तेजी से होता है।
कई बार धार्मिक या राजनीतिक मुद्दों पर फैलाई गई गलत जानकारी हिंसा या दंगे तक पहुंच जाती है।

ऐसे में भारतीय न्याय संहिता (BNS) की धारा 353  समाज में शांति और एकता बनाए रखने का कानूनी हथियार है।


⚖️ धारा 353 का उद्देश्य

इस धारा का मुख्य उद्देश्य है —
“झूठी या भ्रामक जानकारी फैलाकर समाज या राज्य की शांति को भंग करने वालों पर नियंत्रण।”
यह प्रावधान उन सभी पर लागू होता है जो किसी भी माध्यम से
मौखिक, लिखित, या इलेक्ट्रॉनिक — गलत सूचना या अफवाह फैलाते हैं।


⚖️ Section 353 (1): सेना और सार्वजनिक शांति पर प्रभाव


यदि कोई व्यक्ति झूठी या भ्रामक जानकारी फैलाता है जिससे —सेना, नौसेना या वायुसेना के कर्मियों में अनुशासनहीनता या विद्रोह फैल सके,

जनता में डर, अफरातफरी या अपराध की प्रवृत्ति पैदा हो,

या किसी समुदाय को दूसरे के विरुद्ध भड़काया जाए,

तो ऐसे व्यक्ति को तीन वर्ष तक की कैद, जुर्माना, या दोनों हो सकते हैं।


⚖️ Section 353(2): नफरत फैलाने वाले बयान

 

यदि कोई व्यक्ति धर्म, जाति, भाषा, निवास या जन्मस्थान के आधार पर शत्रुता, घृणा या वैमनस्य पैदा करने के लिए झूठी जानकारी फैलाता है,
तो यह भी अपराध है।
इसके लिए भी तीन वर्ष तक की सज़ा या जुर्माना या दोनों का प्रावधान है।


⚖️ Section 353(3): धार्मिक स्थलों पर अपराध

 

यदि यह अपराध किसी पूजा स्थल या धार्मिक सभा में किया गया हो,
तो सज़ा और भी कठोर है —
पाँच वर्ष तक की कैद और जुर्माना दोनों।


⚖️ अपवाद (Exception)


यदि कोई व्यक्ति सच्चे विश्वास और सद्भावना में कोई सूचना देता है,
और उसे झूठा मानने का कोई कारण नहीं था,
तो उसे इस धारा के अंतर्गत दोषी नहीं ठहराया जाएगा।
अर्थात, सद्भावना से की गई गलती अपराध नहीं है।


अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार है, लेकिन उसके साथ जिम्मेदारी भी जुड़ी है।


October 12, 2025

जबरन विवाह या महिला का अपहरण – धारा 87, भारतीय न्याय संहिता 2023

   
Advocate Rahul Goswami,BNS 2023,

आज भी समाज में ऐसे मामले सामने आते हैं जहाँ किसी महिला को उसकी इच्छा के विरुद्ध शादी या अवैध संबंध के लिए बहकाया या जबरन ले जाया जाता है।

भारतीय न्याय संहिता (BNS), 2023 की धारा 87 ऐसे ही अपराधों को रोकने के लिए बनाई गई है।


⚖️ क्या कहती है धारा 


यदि कोई व्यक्ति किसी महिला का अपहरण या बहकाकर ले जाता है, इस नीयत से कि —


● उसे जबरन विवाह करने पर मजबूर किया जाए,

या

● उसे अवैध संबंध में धकेला जाए,

तो यह गंभीर आपराधिक कृत्य माना जाएगा।



⚖️ 🔹 दंड का प्रावधान


इस अपराध के लिए सज़ा का प्रावधान है —

● अधिकतम दस वर्ष तक की कैद और जुर्माना

● यह दंड केवल अपहरण करने वाले पर ही नहीं,

बल्कि उस व्यक्ति पर भी लागू होता है जो धमकी, दबाव या अधिकार का दुरुपयोग करके महिला को किसी स्थान से जाने के लिए मजबूर करता है, यह जानते हुए कि उसे बाद में जबरन विवाह या अवैध संबंध के लिए इस्तेमाल किया जाएगा।



⚖️  कानूनी उद्देश्य


● महिलाओं की इच्छा और स्वतंत्रता की रक्षा करना।

● किसी भी महिला को जबरन विवाह या शारीरिक संबंध के लिए बाध्य करना, केवल उसके सम्मान का नहीं बल्कि उसकी संवैधानिक गरिमा का भी उल्लंघन है।




⚖️ समाज के लिए संदेश


● धारा 87 यह याद दिलाती है कि —

विवाह प्रेम या सहमति से हो सकता है, पर दबाव या छल से नहीं। कानून ऐसे हर व्यक्ति को कठोर सज़ा देता है जो महिला की “ना” को नज़रअंदाज़ कर उसे जबरदस्ती अपने हक में करना चाहता है।

September 28, 2025

“चेक बाउंस केसों में राहत: अब समझौते पर घटा जुर्माना”

 


 चेक बाउंस के मामले देश की अदालतों में सबसे ज़्यादा संख्या में लंबित रहते हैं। ऐसे मामलों को निपटाने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने पहले दामोदर एस. प्रभु बनाम सैयद बाबालाल केस में कुछ नियम बनाए थे। उन नियमों के मुताबिक, अगर आरोपी और शिकायतकर्ता आपस में समझौता कर लेते हैं तो अलग-अलग स्तर की अदालत में कुछ प्रतिशत जुर्माना देकर मामला खत्म किया जा सकता था।


लेकिन अब हाल ही में, संजाबीज तारी बनाम किशोर एस. बोरकर केस में सुप्रीम कोर्ट ने इन नियमों में बदलाव किया है। वजह साफ है—पिछले कुछ सालों में ब्याज दरें कम हुई हैं और ढेरों चेक बाउंस केस अब भी अटके पड़े हैं। इसलिए कोर्ट ने ज़रूरी समझा कि पुराने नियमों को हल्का किया जाए, ताकि समझौते के रास्ते आसान बनें।

 

⚖️ नए नियम ये कहते हैं:


  1. अगर आरोपी ट्रायल में अपने गवाह पेश करने से पहले चेक की रकम चुका देता है, तो उस पर कोई जुर्माना नहीं लगेगा।
  2. अगर गवाह पेश करने के बाद लेकिन ट्रायल कोर्ट के फैसले से पहले भुगतान करता है, तो चेक की रकम के ऊपर 5% अतिरिक्त राशि देनी होगी।
  3. अगर मामला सेशन कोर्ट या हाईकोर्ट में है, तो 7.5% अतिरिक्त राशि देनी होगी।
  4. और अगर समझौता सुप्रीम कोर्ट के सामने होता है, तो ये राशि 10% तक होगी।

यानी पहले की तुलना में यह बोझ आधा कर दिया गया है। पहले जहां सुप्रीम कोर्ट में 20% तक जुर्माना देना पड़ता था, अब सिर्फ 10% देना होगा।


कोर्ट ने यह भी कहा कि अगर शिकायतकर्ता चेक राशि से ज्यादा वसूली की मांग करता है, तो मजिस्ट्रेट अपने अधिकारों का इस्तेमाल करके या तो आरोपी को दोषी मान सकता है, या फिर CrPC की धारा 255 और BNSS की धारा 278 के तहत विकल्पों पर विचार कर सकता है। ज़रूरत पड़ने पर परिवीक्षा अधिनियम, 1958 का लाभ भी दिया जा सकता है।


⚖️ इस फैसले का प्रभाव


क्योंकि यह चेक बाउंस मामलों को जल्दी सुलझाने का रास्ता खोलता है, और आरोपी को भी राहत देता है। वहीं, शिकायतकर्ता को मूल धनराशि के साथ कुछ अतिरिक्त मुआवज़ा भी मिल जाता है।

 सुप्रीम कोर्ट का मकसद है: कम झंझट, जल्दी न्याय, और दोनों पक्षों के लिए संतुलित समाधान।



September 21, 2025

“संपत्ति विवादों में डबल रजिस्ट्री: जिम्मेदार कौन?” विक्रेता, रजिस्ट्रार और खरीदार के अधिकार

 



⚖️ संपत्ति पर डबल रजिस्ट्री : एक गंभीर कानूनी समस्या


भारत में भूमि व संपत्ति के विवादों में सबसे पेचीदा मामला तब खड़ा होता है जब एक ही ज़मीन की दोहरी रजिस्ट्री (Double Registration) हो जाती है। यानी विक्रेता पहले किसी एक व्यक्ति को ज़मीन बेच चुका है और फिर उसी संपत्ति की दोबारा बिक्री किसी अन्य को कर देता है। यह स्थिति केवल खरीदारों के लिए नहीं बल्कि प्रशासनिक स्तर पर भी गंभीर लापरवाही मानी जाती है।


⚖️ रजिस्ट्री दोबारा कैसे हो जाती है?

कानून के अनुसार जब कोई संपत्ति एक बार वैध रूप से रजिस्टर्ड हो जाती है, तो उसी संपत्ति की पुनः रजिस्ट्री होना नहीं चाहिए। इसके बावजूद यह समस्या तीन कारणों से देखने को मिलती है—

  1. धोखाधड़ी (Fraud) : विक्रेता जानबूझकर संपत्ति बार-बार बेचता है।
  2. लिपिकीय त्रुटि (Clerical Error) : रजिस्ट्रार कार्यालय में रिकॉर्ड मिलान सही ढंग से न होने पर।
  3. मिलीभगत : कुछ मामलों में रजिस्ट्रार की लापरवाही या संदेहास्पद भूमिका भी सामने आती है।

⚖️ ज़िम्मेदारी किसकी?
  • रजिस्ट्रार कार्यालय : रजिस्ट्रार का दायित्व है कि पहले से दर्ज रजिस्ट्री का मिलान करके ही नई एंट्री करे। यदि यह नहीं होता तो यह प्रशासनिक लापरवाही है।
  • विक्रेता : जिसने एक ही ज़मीन दो बार बेची, उस पर सीधे तौर पर धोखाधड़ी (Cheating) और छल का आरोप बनता है।

⚖️ कब्ज़ा किसके पास रहेगा?

सर्वोच्च न्यायालय ने अपने कई निर्णयों में यह स्पष्ट किया है कि—

  • पहली वैध बिक्री ही प्रभावी मानी जाएगी।
  • दूसरी रजिस्ट्री कानूनन शून्य (Void) हो जाती है।
  • यदि पहला खरीदार कब्ज़े में है तो उसका हक मज़बूत होगा।

⚖️ उपाय और कानूनी प्रावधान
  1. दीवानी वाद (Civil Suit) : पीड़ित पक्ष दूसरी रजिस्ट्री को निरस्त कराने और अपने स्वामित्व की घोषणा (Declaration of Title) के लिए वाद दायर कर सकता है।
  2. फौजदारी कार्यवाही (Criminal Action) : यदि धोखाधड़ी सिद्ध हो तो भारतीय न्याय संहिता (BNS) की धारा 319 (धोखाधड़ी) और संबंधित धाराओं के तहत आपराधिक मुकदमा चलाया जा सकता है।
  3. रजिस्ट्री रद्द करना : न्यायालय के आदेश से दूसरी बिक्री रद्द की जा सकती है।
  4. क्षतिपूर्ति (Recovery Suit) : जिस पक्ष को नुकसान हुआ है वह न्यायालय से हर्जाना (Damages) मांग सकता है।

⚖️ निष्कर्ष


डबल रजिस्ट्री सिर्फ तकनीकी चूक नहीं बल्कि गंभीर कानूनी अपराध है। खरीदार को सतर्क रहना चाहिए कि रजिस्ट्री से पहले भूमि का रिकॉर्ड, एन्कम्ब्रेंस सर्टिफिकेट और म्यूटेशन एंट्री सही ढंग से जांचे। वहीं, सरकार और रजिस्ट्रार की भी जिम्मेदारी है कि इस तरह की घटनाएं रोकने के लिए डिजिटल रिकॉर्ड सिस्टम और पारदर्शिता सुनिश्चित की जाए।



September 14, 2025

“वसीयत, बैनामा और दान पत्र में हसिया गवाह Hostile" । दस्तावेज़ का execution साबित कैसे?

 


⚖️ जब Attesting Witness (हसिया गवाह) Hostile हो जाए: कानूनी उपाय 


जब दस्तावेज (जैसे वसीयत, gift deed, sale deed), का निष्पादन करने वाले व्यक्ति की मृत्यु हो जाए या किसी कारण से मौजूद न रहे तो दस्तावेज़ की वैधता साबित करने में attesting witness (हसिया गवाह) की भूमिका बेहद अहम होती है। ऐसे दस्तावेज़ जो कानून के अनुसार attested होने चाहिए  उनकी प्रामाणिकता अक्सर गवाह के माध्यम से सिद्ध की जाती है।

लेकिन सवाल उठता है – यदि गवाह hostile हो जाए या इनकार कर दे, तो क्या होगा? भारतीय साक्ष्य अधिनियम (BSA) की धारा 70 इस स्थिति को स्पष्ट रूप से संबोधित करती है।


⚖️  Hostile या Forgetful Witness की स्थिति
  • गवाह इनकार करता है कि उसने दस्तावेज़ को देखा या हस्ताक्षर की पुष्टि की।
  • या कहता है कि उसे याद नहीं कि दस्तावेज़ किस समय निष्पादित हुआ।
  • ऐसे में दस्तावेज़ के execution को सीधे सिद्ध करना मुश्किल हो जाता है।

⚖️ धारा 70 के तहत कानूनी उपाय


धारा 70 यह अनुमति देती है कि यदि attesting witness निष्पादन (execution) को सिद्ध करने में मदद न कर सके, तो “अन्य साक्ष्य” (Other Evidence) के माध्यम से दस्तावेज़ की प्रामाणिकता सिद्ध की जा सकती है।


⚖️ अन्य साक्ष्य के विकल्प
  1. हस्तलेख विशेषज्ञ (Handwriting Expert)

    • दस्तावेज़ पर निष्पादक और गवाह के हस्ताक्षर की पहचान करवा सकते हैं।
    • Expert गवाही से अदालत को पता चलता है कि दस्तावेज़ वास्तव में संबंधित व्यक्ति ने निष्पादित किया।
  2. दस्तावेज़ लेखक/लिपिक (Scribe) की गवाही

    • जिसने दस्तावेज़ लिखा या तैयार किया, वह गवाही देकर दस्तावेज़ के execution की पुष्टि कर सकता है।
  3. परिस्थितिजन्य साक्ष्य (Circumstantial Evidence)

    • जैसे स्टाम्प पेपर की खरीदारी, दस्तावेज़ तैयार होने की तारीख, पक्षकार की व्यवहारिक गतिविधियाँ।
    • यह दर्शाता है कि निष्पादन वास्तविक था।
  4. पार्टी का स्वीकृति/Admission

    • यदि निष्पादक स्वयं दस्तावेज़ के execution को स्वीकार करता है, तो वह भी पर्याप्त साक्ष्य माना जाता है (धारा 69 BSA)।

⚖️ महत्त्व
  • दस्तावेज़ की वैधता में बाधा नहीं आती।
  • कानून लचीलापन देता है, ताकि hostile witness के बावजूद execution सिद्ध किया जा सके।
  • न्यायालय परिस्थितियों के अनुसार अन्य साक्ष्य स्वीकार करता है।

⚖️ उदाहरण

मान लीजिए:

  • X ने जमीन का sale deed बनाया।
  • Attesting witness Y अदालत में कह देता है कि “मुझे याद नहीं कि X ने हस्ताक्षर किए।”
  • अब अदालत handwriting expert, scribe, और X के conduct (जैसे जमीन का कब्जा लेने के बाद व्यवहार) को देखकर निष्पादन सिद्ध कर सकती है।

⚖️ ✅ निष्कर्ष


धारा 70 BSA यह सुनिश्चित करती है कि attesting witness hostile होने पर भी दस्तावेज़ की प्रामाणिकता साबित की जा सके

  • यह न्यायिक प्रक्रिया में बाधा नहीं डालता।
  • दस्तावेज़ के execution को सिद्ध करने के लिए विविध प्रकार के साक्ष्य स्वीकार्य हैं।


September 13, 2025

अभियुक्त का अच्छा चरित्र ,क्या कोर्ट में बचाव का सहारा बन सकता है?

 


⚖️ भारतीय साक्ष्य अधिनियम (BSA) की धारा 47

मूल प्रावधान:

दंड प्रक्रिया (Criminal Proceedings) में यह तथ्य कि अभियुक्त (Accused) का चरित्र अच्छा है, प्रासंगिक (Relevant) है।


🔹 

क्रिमिनल मामलों में जब किसी व्यक्ति पर अपराध का आरोप लगाया जाता है, तब उसका सदाचार / अच्छा चरित्र न्यायालय के समक्ष प्रासंगिक माना जाएगा।
👉 अर्थात यदि अभियुक्त का चरित्र समाज में अच्छा, ईमानदार और अपराधविरहित माना जाता है, तो यह तथ्य उसके पक्ष में गिना जाएगा।


🔹 क्यों प्रासंगिक है?

  • आपराधिक न्याय में अभियुक्त को “निर्दोष मानने का सिद्धांत” (Presumption of Innocence) प्राप्त है।
  • यदि अभियुक्त का चरित्र अच्छा है, तो यह उसके विरुद्ध आरोप की संभावना को कम कर सकता है।
  • इससे अभियुक्त को लाभ मिलता है, जबकि बुरे चरित्र को सामान्य रूप से अभियुक्त के विरुद्ध इस्तेमाल नहीं किया जाता (क्योंकि यह उसे पूर्वाग्रहित करेगा)।

🔹 उदाहरण (Illustration):

  1. A पर चोरी का आरोप है। यदि यह सिद्ध किया जाए कि A लंबे समय से एक ईमानदार व्यापारी है और समाज में उसकी प्रतिष्ठा सदाचारी व्यक्ति की है, तो यह तथ्य उसके पक्ष में प्रासंगिक होगा।
  2. B पर हत्या का आरोप है। यदि यह सिद्ध किया जाए कि B का आचरण सदा शांतिप्रिय और नैतिक रहा है, तो यह तथ्य अदालत में उसके बचाव में गिना जाएगा।

🔹 जोड़ने का कारण:

  • आपराधिक न्याय प्रणाली अभियुक्त को बचाव का पूरा अवसर देती है।
  • अदालत को यह समझने में मदद मिले कि क्या अभियुक्त की अच्छे चरित्र की प्रवृत्ति उस पर लगे अपराध के आरोप से मेल खाती है या नहीं।
  • यह प्रावधान अभियुक्त को अनुचित पूर्वाग्रह से बचाता है।

⚖️ निष्कर्ष:
धारा 47 यह सिद्धांत स्थापित करती है कि क्रिमिनल मामलों में अभियुक्त का अच्छा चरित्र साक्ष्य के रूप में प्रासंगिक होता है और उसे लाभ पहुँचा सकता है।


September 07, 2025

"बिना Sale Deed के भी कब्ज़ा सुरक्षित! जानिए आंशिक निष्पादन का नियम" "आंशिक निष्पादन" (Part Performance) धारा 53A, संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882

 




आंशिक निष्पादन (Part Performance) का अर्थ

जब खरीद-बिक्री का समझौता (Agreement to Sell) हुआ है, लेकिन पंजीकृत विक्रय विलेख (Registered Sale Deed) अभी तक नहीं बना,
फिर भी खरीदार ने समझौते की शर्तें पूरी कर दी हैं और संपत्ति का कब्ज़ा ले लिया है,
तो विक्रेता (Seller) खरीदार को संपत्ति से बेदखल नहीं कर सकता।


यह प्रावधान खरीदार की रक्षा (Protection) के लिए है, लेकिन स्वामित्व का अधिकार (Ownership Right) नहीं देता।


कानूनी प्रावधान — धारा 53A, संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882

  • यदि विक्रेता और खरीदार के बीच लिखित समझौता हो।
  • खरीदार ने मूल्य का भुगतान कर दिया हो या करने की तैयारी में हो।
  • खरीदार ने कब्ज़ा ले लिया हो या पहले से कब्ज़े में हो।
  • और खरीदार समझौते की सारी शर्तें पूरी कर रहा हो

तो —

विक्रेता खरीदार को संपत्ति से निकाल नहीं सकता
लेकिन खरीदार को स्वामित्व का अधिकार नहीं मिलेगा, जब तक पंजीकृत विक्रय विलेख नहीं बनता।


उदाहरण

परिस्थिति:

  • राम ने श्याम से 1,00,000 रुपये में एक प्लॉट खरीदने का एग्रीमेंट टू सेल किया।
  • राम ने पूरे पैसे दे दिए और कब्ज़ा भी ले लिया।
  • लेकिन विक्रय विलेख (Sale Deed) अभी पंजीकृत नहीं हुआ।
  • कुछ महीनों बाद, श्याम प्लॉट वापस मांगता है और राम को निकालना चाहता है।

कानून क्या कहता है:

  • राम धारा 53A का सहारा लेकर कहेगा:

    “मैंने समझौते की शर्तें पूरी कीं, पैसे दिए और कब्ज़ा लिया,
    इसलिए श्याम मुझे बेदखल नहीं कर सकता।”

परिणाम:

  • राम को कब्ज़ा सुरक्षित रहेगा।
  • लेकिन जब तक पंजीकृत विक्रय विलेख नहीं बनेगा, राम कानूनी मालिक (Owner) नहीं कहलाएगा।


September 03, 2025

कब और कैसे न्यायालय लगाता है तथ्य का अनुमान आरोपी के खिलाफ़ भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 की धारा 119 Legal Updates Online





भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 की धारा 119


"न्यायालय किसी तथ्य के अस्तित्व के बारे में अनुमान लगा सकता है, अगर सामान्य परिस्थितियाँ, मानव आचरण, प्राकृतिक घटनाएँ, व्यापारिक व्यवहार और आम अनुभव यह दिखाते हैं कि वह तथ्य संभवतः हुआ होगा।"

●  मतलब, अगर कोई तथ्य सीधे सबूत से साबित नहीं हो रहा,


●  लेकिन परिस्थितियाँ, अनुभव और सामान्य व्यवहार यह बताते हैं कि ऐसा होना संभावना के अनुसार सही है, तो न्यायालय मान सकता है कि वह तथ्य हुआ है।




⚖️ यह अनुमान कब लगाया जाता है


न्यायालय दो चीज़ों को देखता है:


(i) सामान्य मानव आचरण → लोग आम तौर पर कैसे बर्ताव करते हैं।


(ii) प्राकृतिक घटनाएँ व व्यवसायिक लेन-देन → दुनिया में आमतौर पर क्या होता है।



अगर कोई घटना सामान्य प्रवृत्ति के अनुसार लगती है,

तो न्यायालय अनुमान लगाएगा।

अगर घटना असामान्य लगती है,

तो न्यायालय अनुमान नहीं लगाएगा।





⚖️ उदाहरणों (Illustrations) से समझिए


(a) चोरी की संपत्ति


●  अगर चोरी हुई है और किसी के पास चोरी के माल मिलते हैं तुरंत बाद,

तो न्यायालय मान सकता है:


●  या तो वह व्यक्ति चोर है,


●  या उसे पता था कि माल चोरी का है।


●  लेकिन, अगर वह व्यक्ति यह साबित कर दे कि उसने माल ईमानदारी से खरीदा, तो अनुमान हट जाएगा।



(b) सह-अपराधी की गवाही


●  अगर कोई सह-अपराधी (Accomplice) गवाही देता है,


●  तो न्यायालय मान सकता है कि वह पूरी तरह विश्वसनीय नहीं है, जब तक उसकी गवाही महत्वपूर्ण बिंदुओं पर दूसरे सबूतों से मेल न खाती हो।




(c) बिल ऑफ एक्सचेंज / हंडी


● अगर कोई बिल ऑफ एक्सचेंज (हंडी) पर हस्ताक्षर करता है,


●  तो न्यायालय मान सकता है कि उसने असली लेन-देन के लिए ही किया होगा।


(d) किसी अवस्था की निरंतरता


● अगर पाँच दिन पहले नदी का बहाव एक दिशा में था,

और सामान्य रूप से नदी का रास्ता जल्दी नहीं बदलता,

●  तो न्यायालय मान सकता है कि नदी आज भी उसी दिशा में बह रही है।

● लेकिन, अगर बीच में बाढ़ आई थी,

तो अनुमान नहीं लगाया जाएगा।



(e) सरकारी और न्यायिक कार्यों की नियमितता


● अगर कोई न्यायिक आदेश या सरकारी कार्य हुआ है,

तो सामान्यतः न्यायालय मान लेगा कि वह नियमों के अनुसार हुआ है।



(f) व्यापार का सामान्य तरीका


● अगर डाक द्वारा चिट्ठी भेजी गई है,

तो न्यायालय मान सकता है कि वह पोस्ट हो गई होगी और पहुँच गई होगी।


● लेकिन, अगर सबूत मिले कि उस दिन डाक सेवा बाधित थी,

तो अनुमान नहीं लगाया जाएगा।



(g) सबूत न देने की स्थिति


●  अगर कोई व्यक्ति ऐसा दस्तावेज़ नहीं दिखाता


●  जो आसानी से वह पेश कर सकता था,


●  तो न्यायालय मान सकता है कि वह दस्तावेज़ उसके खिलाफ़ जाता।



(h) प्रश्न का उत्तर देने से इनकार


●  अगर कोई व्यक्ति ऐसा प्रश्न का उत्तर देने से मना करता है

जिसका जवाब देने के लिए वह क़ानूनन बाध्य नहीं है,

तो न्यायालय मान सकता है कि उसका उत्तर उसके खिलाफ़ जाता।



(i) दायित्व से जुड़ा दस्तावेज़


●  अगर कोई बांड (Bond) या दायित्व से जुड़ा दस्तावेज़ ऋणी (Obligor) के पास पाया जाता है, तो न्यायालय मान सकता है कि दायित्व खत्म हो गया है।




⚖️ न्यायालय क्या-क्या देखता है


धारा 119(2) कहती है कि अनुमान लगाते समय


न्यायालय निम्न बातों पर विचार करेगा:


●  दुकानदार रोज़ाना बहुत से सिक्के लेता है, तो एक चिह्नित सिक्का मिलना प्रमाण नहीं होगा।


●  बाढ़ आने के बाद नदी के पुराने रास्ते का अनुमान नहीं लगाया जाएगा।



●  डाक सेवा बाधित होने पर चिट्ठी मिलने का अनुमान नहीं लगाया जाएगा।


●  दस्तावेज़ छिपाने का कारण व्यक्तिगत प्रतिष्ठा भी हो सकता है।





⚖️ महत्वपूर्ण न्यायालयीन निर्णय (Case Laws)


🏛 Supreme Court Judgement In State of Rajasthan v. Kashi Ram (2006) 12 SCC 254 , न्यायालय ने कहा:“धारा 119 के तहत, न्यायालय सामान्य मानव आचरण और तार्किक परिस्थितियों के आधार पर अनुमान लगा सकता है।”



🏛 Supreme Court Judgement In  Trimukh Maroti Kirkan v. State of Maharashtra (2006) 10 SCC 681, सुप्रीम कोर्ट ने कहा:“जहाँ प्रत्यक्ष सबूत नहीं है, वहाँ न्यायालय परिस्थितिजन्य साक्ष्य और तार्किक संभावनाओं पर निर्णय कर सकता है।”





 निष्कर्ष


धारा 119 न्यायालय को तथ्यों का अनुमान लगाने की शक्ति देती है।

September 03, 2025

“Confession in Police Custody: कब मान्य, कब अमान्य?” “भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 23: अभियुक्त के मौलिक अधिकारों की ढाल”

 

“Confession in Police Custody: कब मान्य, कब अमान्य?”  “भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 23: अभियुक्त के मौलिक अधिकारों की ढाल” #Advocate #Rahul_Goswami #Gonda #Criminal_Lawyer

⚖️ भारतीय साक्ष्य अधिनियम (BSA)
धारा 23


"भारतीय दंड प्रक्रिया में अभियुक्त द्वारा दी गई स्वीकारोक्ति (Confession) साक्ष्य के सबसे संवेदनशील पहलुओं में से एक है।


धारा 23 भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 का उद्देश्य  —


पुलिस के समक्ष दिया गया स्वीकारोक्ति (Confession)  सामान्यतः अविश्वसनीय है और अभियुक्त के विरुद्ध इस्तेमाल नहीं की जा सकती।

क्योंकि पुलिस हिरासत में बयान देते समय अभियुक्त पर डर, दबाव, प्रलोभन, या धमकी का असर हो सकता है।"


 धारा 23(1) 


●  किसी पुलिस अधिकारी के समक्ष अभियुक्त द्वारा किया गया स्वीकारोक्ति (Confession) न्यायालय में अभियुक्त के विरुद्ध साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत नहीं किया जा सकता।

●  मतलब यह कि पुलिस के सामने दिया गया बयान मान्य साक्ष्य नहीं है, क्योंकि पुलिस के दबाव, डर या प्रलोभन में दिए गए बयान की सत्यता पर संदेह रहता है।


 धारा 23(2) 


●  यदि कोई व्यक्ति पुलिस अभिरक्षा (Police Custody) में रहते हुए स्वीकारोक्ति (confession) करता है, तो वह भी अभियुक्त के विरुद्ध साक्ष्य के रूप में उपयोग नहीं की जाएगी,

●  जब तक कि वह स्वीकारोक्ति किसी मजिस्ट्रेट के तत्कालीन (Immediate) समक्ष न की गई हो।

●  यह प्रावधान अभियुक्त को सुरक्षा प्रदान करता है कि पुलिस हिरासत में उसका बयान स्वतंत्र और स्वेच्छा से ही दर्ज हो।


 

⚖️ प्रावधान (Proviso) –


●  यदि पुलिस अभिरक्षा में अभियुक्त से कोई सूचना प्राप्त होती है और उस सूचना के आधार पर कोई तथ्य (Fact) खोज निकाला जाता है, तो

●  उस सूचना का उतना ही हिस्सा साक्ष्य के रूप में स्वीकार्य होगा, जो सीधे-सीधे उस खोजे गए तथ्य से संबंधित हो।

भले ही वह सूचना स्वीकारोक्ति का हिस्सा हो या न हो।


⚖️ उदाहरण –



मान लीजिए अभियुक्त पुलिस अभिरक्षा में कहता है – “मैंने चाकू कुएँ में फेंका है।”


यदि पुलिस उस कुएँ से चाकू बरामद कर लेती है, तो अभियुक्त का यह कथन “कुएँ में चाकू है” स्वीकार्य होगा।


लेकिन यह हिस्सा “मैंने हत्या की है” स्वीकार्य नहीं होगा, क्योंकि वह आत्मस्वीकारोक्ति है।

September 01, 2025

"BNS 76: महिला की गरिमा पर हमला!"

 

"BNS 76: महिला की गरिमा पर हमला!"।  #Advocate #Rahul_Goswami #D.K.GIRI #Gonda #Criminal_Lawyer

⚖️ BNS की धारा 76 – किसी महिला को निर्वस्त्र करने के इरादे से हमला या बल का प्रयोग


 "जो कोई किसी स्त्री पर आक्रमण करता है या उस पर आपराधिक बल का प्रयोग करता है, या ऐसे कृत्य को उकसाता है, इस आशय से कि वह उसे निर्वस्त्र कर सके या उसे नग्न होने के लिए बाध्य कर सके, वह ऐसे अपराध के लिए तीन वर्ष से कम नहीं, किन्तु सात वर्ष तक की कारावास से, और जुर्माने से भी दंडनीय होगा।"



⚖️  अपराध के आवश्यक तत्व 
( Essentials to Attract Section )


धारा 76 तभी लागू होगी जब निम्नलिखित शर्तें पूरी हों:


(1) पीड़िता महिला होनी चाहिए


● यह धारा केवल महिलाओं के लिए सुरक्षा प्रदान करती है।


● यदि पीड़ित पुरुष है, तो यह धारा लागू नहीं होगी।




(2) हमला (Assault) या आपराधिक बल (Criminal Force) का प्रयोग होना चाहिए


● Assault = ऐसा कोई भी कृत्य जिससे महिला के मन में चोट पहुँचाने, छेड़छाड़ करने या हानि पहुँचाने का भय उत्पन्न हो।


● Criminal Force = किसी महिला को उसकी इच्छा के विरुद्ध बलपूर्वक छूना, पकड़ना, खींचना, धक्का देना आदि।




(3) निर्वस्त्र करने का इरादा (Intention to Disrobe or Compel Nakedness)


● हमलावर का उद्देश्य महिला के कपड़े उतारना या उसे नग्न होने पर मजबूर करना होना चाहिए।


● यदि हमले के पीछे यह इरादा नहीं है, तो धारा 76 नहीं लगेगी, बल्कि अन्य धाराएँ जैसे धारा 74 (modesty outrage) लागू होंगी।





(4) उकसाना या सहायता करना (Abetment)


यदि कोई व्यक्ति खुद हमला नहीं करता, बल्कि किसी और को इस काम के लिए उकसाता है या मदद करता है, तब भी वह धारा 76 के अंतर्गत दोषी होगा।




(5) दोषी मनःस्थिति (Mens Rea) अनिवार्य है


● अभियुक्त के पास स्पष्ट इरादा होना चाहिए कि महिला को निर्वस्त्र किया जाए।


● बिना इरादे के गलती से कपड़े खिंच जाने पर यह धारा लागू नहीं होगी।




⚖️ दंड (Punishment)


● न्यूनतम सज़ा → 3 वर्ष


● अधिकतम सज़ा → 7 वर्ष


● जुर्माना → अनिवार्य, न्यायालय परिस्थिति देखकर तय करेगा।




⚖️ उदाहरण (Illustration)


उदाहरण 1: यदि कोई व्यक्ति सड़क पर किसी महिला के कपड़े खींचकर उसे निर्वस्त्र करने की कोशिश करता है → धारा 76 लागू होगी।


उदाहरण 2: यदि किसी महिला से झगड़े में उसका दुपट्टा अनजाने में खिंच जाता है, बिना किसी अश्लील उद्देश्य के → धारा 76 लागू नहीं होगी।


August 31, 2025

यौन उत्पीड़न के 4 प्रकार और सज़ा | BNS 2023


 

यौन उत्पीड़न के 4 प्रकार और सज़ा | BNS 2023 #Advocate #Rahul_Goswami #Gonda #Best_Criminal_Lawyer


⚖️ धारा 75 – यौन उत्पीड़न
(Sexual Harassment)


 यदि कोई पुरुष (man) महिला की इच्छा के विरुद्ध किसी भी प्रकार का अनुचित यौन व्यवहार करता है, तो वह अपराध माना जाएगा।


यदि कोई पुरुष निम्नलिखित में से कोई भी कार्य करता है, तो वह यौन उत्पीड़न का दोषी होगा:


(i) शारीरिक संपर्क और अग्रसरता (Physical Contact & Advances)


यदि कोई पुरुष अनचाहे शारीरिक संपर्क करता है और यौन इच्छाओं से प्रेरित स्पष्ट अग्रसरता (explicit sexual overtures) दिखाता है तो यह अपराध माना जाएगा।



(ii) लैंगिक स्वीकृति की मांग या अनुरोध (Demand or Request for Sexual Favours)


यदि कोई पुरुष किसी महिला से यौन संबंध बनाने की मांग करता है या यौन स्वीकृति का अनुरोध करता है, तो यह भी अपराध है।



(iii) अश्लील सामग्री दिखाना (Showing Pornography)


यदि कोई पुरुष महिला की इच्छा के विरुद्ध पोर्नोग्राफिक सामग्री (pornography) दिखाता है, तो वह भी यौन उत्पीड़न की श्रेणी में आएगा।



(iv) यौन टिप्पणी करना (Sexually Coloured Remarks)


यदि कोई पुरुष महिला के प्रति अशोभनीय, अश्लील या यौन अभिप्राय वाली टिप्पणियाँ करता है, तो यह भी अपराध है।




⚖️ (2) दंड
(Punishment)


(a) Clause (i), (ii), (iii) के अंतर्गत यदि पुरुष उपरोक्त तीनों में से कोई भी कार्य करता है, तो उसे कठोर कारावास (Rigorous Imprisonment) 3 वर्ष तक हो सकता है, या जुर्माना, या दोनों हो सकते हैं।



(b) क्लॉज़ (iv) के अंतर्गत यदि पुरुष केवल यौन टिप्पणी (Sexually Coloured Remarks) करता है, तो उसे साधारण या कठोर कारावास 1 वर्ष तक हो सकता है, या जुर्माना, या दोनों हो सकते हैं।



⚖️ Essentials of Section 75 BNS


1. अभियुक्त (Accused): केवल पुरुष



2. पीड़ित (Victim): केवल महिला



3. स्वीकृति आवश्यक (Consent Matters): महिला की इच्छा के विरुद्ध कार्य होना चाहिए।



4. चार मुख्य अपराध (Four Acts):


अनचाहा शारीरिक संपर्क


यौन एहसान की मांग


पोर्नोग्राफी दिखाना


यौन टिप्पणियाँ करना


⚖️ Bare Act
 


BNS 75. (1) A man committing any of the following acts:—


(i) physical contact and advances involving unwelcome and explicit sexual overtures; or


(ii) a demand or request for sexual favours; or


(iii) showing pornography against the will of a woman; or


(iv) making sexually coloured remarks, shall be guilty of the offence of sexual harassment.


(2) Any man who commits the offence specified in clause (i) or clause (ii) or clause (iii) of sub-section (1) shall be punished with rigorous imprisonment for a term which may extend to three years, or with fine, or with both.


(3) Any man who commits the offence specified in clause (iv) of sub-section (1) shall be punished with imprisonment of either description for a term which may extend to one year, or with fine, or with both


August 30, 2025

तीसरी पीढ़ी को मिली संपत्ति – पूर्वजीय संपत्ति मानी जाएगी या नहीं? Advocate Rahul Goswami


तीसरी पीढ़ी को मिली संपत्ति – पूर्वजों की मानी जाएगी या नहीं? Advocate Rahul Goswami Gonda


 पूर्वजीय (Ancestral) संपत्ति के महत्वपूर्ण कानूनी बिंदु ।
 हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956, 2005 संशोधन 



क्या दादा की संपत्ति पिता को मिली, लेकिन परदादा के समय में संपत्ति बंट चुकी थी। ऐसे में, क्या दादा की संपत्ति पूर्वजीय (Ancestral) मानी जाएगी या स्वअर्जित (Self-acquired)?



⚖️ मुख्य कानूनी सिद्धांत


(A) पूर्वजीय संपत्ति (Ancestral Property)


अगर कोई संपत्ति पूर्वजों से मिली है और चार पीढ़ियों तक बंटवारा नहीं हुआ है, तो वह पूर्वजीय संपत्ति मानी जाती है।


इस संपत्ति में जन्मसिद्ध अधिकार होता है — बेटा और बेटी दोनों के लिए।



(B) स्वअर्जित संपत्ति (Self-acquired Property)


अगर किसी भी समय कानूनी बंटवारा हो गया, तो उस बंटवारे के बाद जो हिस्सा किसी को मिला, वह स्वअर्जित संपत्ति बन जाता है।


उस हिस्से में बच्चों को जन्म से कोई अधिकार नहीं मिलता।


उस व्यक्ति को पूर्ण स्वतंत्रता होती है कि वह अपनी संपत्ति को बेच सकता है, दान कर सकता है, या वसीयत के जरिए किसी को भी दे सकता है।



 

⚖️ उदाहरण के अनुसार स्थिति


Case 1परदादा के समय बंटवारा हो गया था


परदादा की संपत्ति, मान लीजिए 20 एकड़ थी। परदादा के 2 बेटे थे: दादा और दादा के भाई। परदादा की मृत्यु के समय कानूनी रूप से बंटवारा हो गया और दादा को 10 एकड़ जमीन मिल गई।



इस स्थिति में:


● दादा की 10 एकड़ जमीन स्वअर्जित संपत्ति मानी जाएगी।


● कारण: परदादा की मृत्यु के समय कानूनी बंटवारा हो चुका है।


● इस 10 एकड़ जमीन पर दादा के बेटों या पोतों को जन्म से कोई अधिकार नहीं होगा।


● दादा अपनी 10 एकड़ जमीन को अपनी मर्जी से बेच, दान, या वसीयत कर सकते हैं।



Case 2 परदादा के समय बंटवारा नहीं हुआ था


अगर परदादा की 20 एकड़ जमीन पर कोई बंटवारा नहीं हुआ था। परदादा की मृत्यु के बाद दादा और दादा के भाई संयुक्त रूप से मालिक बने रहे। यह जमीन दादा से पिता, और पिता से बेटे तक बिना बंटवारे के चलती रही।



इस स्थिति में:


● यह जमीन पूर्वजीय संपत्ति मानी जाएगी।


● दादा, पिता, और पुत्र — तीनों coparceners हैं।


● इस जमीन में पुत्र और पुत्री को जन्म से ही समान अधिकार होगा।


● दादा अकेले अपनी मर्जी से पूरी जमीन बेच या दान नहीं कर सकते।



🏛 Supreme Court Judgement In Uttam v. Saubhag Singh, (2016) , "जब coparceners में कानूनी बंटवारा हो जाता है, तो प्रत्येक का हिस्सा उसकी स्वअर्जित संपत्ति बन जाता है।