“चेक बाउंस पर 20% राशि देने का कानूनी प्रावधान”
चेक बाउंस के मामलों में कानूनी प्रावधान, जिसमें अदालत अभियुक्त से मुकदमे की शुरुआत में ही चेक राशि का 20% पीड़ित व्यक्ति को देने का आदेश दे सकती है।
कई बार लोग किसी लेन-देन में नकद रकम न देकर चेक दे देते हैं।
पर जब बैंक में वह चेक जमा होता है, तो कई बार वह बाउंस हो जाता है — यानी खाते में पर्याप्त रकम नहीं होती, सिग्नेचर गलत होते हैं, या खाता बंद होता है।
ऐसे में यह act of dishonour विश्वासघात और आर्थिक धोखाधड़ी की श्रेणी में आता है।
इसी स्थिति को नियंत्रित करने के लिए Negotiable Instruments Act, 1881 की धारा 138 लागू होती है।
यह धारा कहती है कि अगर किसी का चेक बाउंस हो जाता है, तो वह एक अपराध (offence) है, और पीड़ित व्यक्ति न्यायालय में परिवाद (complaint) दाखिल कर सकता है।
चेक बाउंस मामलों की बढ़ती संख्या और धीमी प्रक्रिया को देखते हुए संसद ने Section 143(A) जोड़ा।
इसके तहत, जब आरोपी व्यक्ति अदालत में पेश होता है,
तो न्यायालय उसे आदेश दे सकता है कि वह चेक राशि का 20% पीड़ित पक्ष को अंतरिम प्रतिकर (interim compensation) के रूप में तुरंत दे।
मान लीजिए, किसी व्यक्ति ने किसी को ₹1,00,000 का चेक दिया।
चेक बाउंस हो गया।
पीड़ित ने कोर्ट में केस दायर किया।
जब आरोपी कोर्ट में उपस्थित होता है, तब कोर्ट कह सकती है कि —
"तुम्हें इस ₹1,00,000 की 20% राशि यानी ₹20,000 अभी पीड़ित को देनी होगी।"
अगर केस में आरोपी निर्दोष साबित होता है,
तो अदालत यह 20% राशि वापस कराने का आदेश देती है।
लेकिन, अगर आरोपी दोषी पाया जाता है,
तो उसे बाकी की राशि, ब्याज और न्यायालय शुल्क तक भरना पड़ता है।
अगर आरोपी सत्र न्यायालय में अपील करता है,
तो अपील पर सुनवाई तब तक नहीं होती जब तक वह कुल राशि का 20% कोर्ट के आदेश अनुसार नहीं भर देता।
इस प्रावधान का मकसद साफ है —
“जो व्यक्ति चेक देता है, उसने किसी वैध लेन-देन के तहत ही दिया होगा।”
क्योंकि कोई भी व्यक्ति यूं ही किसी को चेक नहीं देता।
इसलिए कोर्ट मानती है कि पीड़ित पक्ष को प्रारंभिक राहत (early relief) मिलनी चाहिए।
यह कानून अब यह सुनिश्चित करता है कि
जो व्यक्ति चेक के भरोसे किसी को भुगतान करता है,
वह उस भरोसे को तोड़ने की कीमत पहले ही अदा करे।
कानून कहता है —
"भरोसे से दिया गया चेक, जिम्मेदारी से निभाया जाए।"


      
      
      
