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September 07, 2025

जमानत मामले में 21 बार सुनवाई स्थगित होने से सुप्रीम कोर्ट नाराज

 



"जमानत पर न्याय में देरी: न्यायालयों के लिए चेतावनी की घड़ी"

भारतीय न्यायपालिका की सबसे बड़ी चुनौती आज केवल मामलों की संख्या नहीं है, बल्कि न्याय में हो रही अनुचित देरी भी है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक मामले में कड़ी नाराज़गी जताई, जहां जमानत याचिका पर लगातार 21 बार सुनवाई स्थगित की गई। यह स्थिति केवल एक याचिकाकर्ता की व्यक्तिगत स्वतंत्रता का प्रश्न नहीं है, बल्कि न्याय प्रणाली की विश्वसनीयता पर भी गंभीर सवाल खड़ा करती है।


मुख्य न्यायाधीश जस्टिस बी.आर. गवई, जस्टिस एन.वी. अंजारिया और जस्टिस आलोक अराधे की पीठ ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता से जुड़े मामलों में त्वरित सुनवाई न्यायालयों की संवैधानिक जिम्मेदारी है। शीर्ष अदालत ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश से व्यक्तिगत रूप से हस्तक्षेप कर शीघ्र निपटारे का निर्देश दिया।


याचिकाकर्ता कुलदीप की ओर से पेश वकील ने दलील दी कि उनकी जमानत याचिका पर हाईकोर्ट में बार-बार तारीखें दी जाती रहीं और अब अगली सुनवाई भी दो महीने बाद तय की गई है। वकील ने एक और उदाहरण दिया, जहां सुप्रीम कोर्ट को 43 बार स्थगन के बाद स्वयं जमानत देनी पड़ी थी


हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में तुरंत जमानत देने से इनकार किया, लेकिन स्पष्ट संकेत दिया कि अगली तारीख पर हाईकोर्ट को निर्णय लेना ही होगा। यदि ऐसा नहीं हुआ, तो याचिकाकर्ता को फिर से शीर्ष अदालत का दरवाजा खटखटाने की छूट होगी।


दरअसल, यह केवल एक मामले की कहानी नहीं है। न्याय में बार-बार हो रही देरी, खासकर जमानत जैसे संवेदनशील मामलों में, व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करती है। शीर्ष अदालत पहले भी कई बार चेतावनी दे चुकी है कि अनावश्यक स्थगन न्याय के मूल सिद्धांतों के विरुद्ध है।


यह मामला न्यायपालिका के लिए एक चेतावनी की घंटी है। अदालतों को यह समझना होगा कि न्याय में देरी, न्याय से इनकार के समान है। अब समय आ गया है कि निचली और उच्च अदालतें सुनवाई की प्राथमिकताओं में स्पष्ट बदलाव लाएँ, विशेषकर उन मामलों में जो नागरिकों की जीवन और स्वतंत्रता से जुड़े हैं।



September 07, 2025

आपराधिक मामलों में देरी ‘मानसिक कारावास’ के समान : सुप्रीम कोर्ट


सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण टिप्पणी करते हुए कहा है कि किसी आपराधिक मुकदमे को अनुचित रूप से लंबा खींचना अभियुक्त के लिए “मानसिक कारावास” के समान है।

न्यायमूर्ति एन.वी. अंजारिया और ए.एस. चंदुरकर की पीठ ने यह टिप्पणी तब की, जब उसने भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 के तहत दोषी ठहराई गई 75 वर्षीय महिला की सजा में राहत दी।


मामले की पृष्ठभूमि

यह मामला 22 वर्ष पुराना है, जिसमें महिला पर केंद्रीय उत्पाद शुल्क निरीक्षक के पद पर रहते हुए भ्रष्टाचार का आरोप था।

  • निचली अदालत ने महिला को एक वर्ष के कठोर कारावास की सजा सुनाई थी।
  • मद्रास उच्च न्यायालय ने अगस्त 2010 में इस सजा को बरकरार रखा।
  • इसके खिलाफ महिला ने सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की।


सुप्रीम कोर्ट का फैसला

  • दोषसिद्धि को बरकरार रखते हुए, अदालत ने महिला की सजा को घटाकर वही अवधि कर दी, जो वह पहले ही जेल में बिता चुकी थी।
  • हालांकि, अदालत ने जुर्माने की राशि में ₹25,000 की वृद्धि की।
  • अदालत ने कहा, “22 वर्षों तक मुकदमे का बोझ उठाना स्वयं में ही एक सजा के समान है।”


महत्वपूर्ण अवलोकन

पीठ ने स्पष्ट किया कि:

किसी व्यक्ति को दशकों तक आपराधिक कार्यवाही में उलझाए रखना उसकी स्वतंत्रता, गरिमा और मानसिक शांति पर गंभीर आघात है। यह ‘मानसिक कारावास’ के समान कष्टकारी है।

यह फैसला इस बात पर जोर देता है कि न्याय में अनावश्यक देरी न केवल अभियुक्त के मौलिक अधिकारों का हनन है, बल्कि त्वरित न्याय की संवैधानिक भावना के भी विपरीत है।