"जमानत पर न्याय में देरी: न्यायालयों के लिए चेतावनी की घड़ी"
भारतीय न्यायपालिका की सबसे बड़ी चुनौती आज केवल मामलों की संख्या नहीं है, बल्कि न्याय में हो रही अनुचित देरी भी है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक मामले में कड़ी नाराज़गी जताई, जहां जमानत याचिका पर लगातार 21 बार सुनवाई स्थगित की गई। यह स्थिति केवल एक याचिकाकर्ता की व्यक्तिगत स्वतंत्रता का प्रश्न नहीं है, बल्कि न्याय प्रणाली की विश्वसनीयता पर भी गंभीर सवाल खड़ा करती है।
मुख्य न्यायाधीश जस्टिस बी.आर. गवई, जस्टिस एन.वी. अंजारिया और जस्टिस आलोक अराधे की पीठ ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता से जुड़े मामलों में त्वरित सुनवाई न्यायालयों की संवैधानिक जिम्मेदारी है। शीर्ष अदालत ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश से व्यक्तिगत रूप से हस्तक्षेप कर शीघ्र निपटारे का निर्देश दिया।
याचिकाकर्ता कुलदीप की ओर से पेश वकील ने दलील दी कि उनकी जमानत याचिका पर हाईकोर्ट में बार-बार तारीखें दी जाती रहीं और अब अगली सुनवाई भी दो महीने बाद तय की गई है। वकील ने एक और उदाहरण दिया, जहां सुप्रीम कोर्ट को 43 बार स्थगन के बाद स्वयं जमानत देनी पड़ी थी।
हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में तुरंत जमानत देने से इनकार किया, लेकिन स्पष्ट संकेत दिया कि अगली तारीख पर हाईकोर्ट को निर्णय लेना ही होगा। यदि ऐसा नहीं हुआ, तो याचिकाकर्ता को फिर से शीर्ष अदालत का दरवाजा खटखटाने की छूट होगी।
दरअसल, यह केवल एक मामले की कहानी नहीं है। न्याय में बार-बार हो रही देरी, खासकर जमानत जैसे संवेदनशील मामलों में, व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करती है। शीर्ष अदालत पहले भी कई बार चेतावनी दे चुकी है कि अनावश्यक स्थगन न्याय के मूल सिद्धांतों के विरुद्ध है।
यह मामला न्यायपालिका के लिए एक चेतावनी की घंटी है। अदालतों को यह समझना होगा कि न्याय में देरी, न्याय से इनकार के समान है। अब समय आ गया है कि निचली और उच्च अदालतें सुनवाई की प्राथमिकताओं में स्पष्ट बदलाव लाएँ, विशेषकर उन मामलों में जो नागरिकों की जीवन और स्वतंत्रता से जुड़े हैं।