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आपराधिक मामलों में देरी ‘मानसिक कारावास’ के समान : सुप्रीम कोर्ट


सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण टिप्पणी करते हुए कहा है कि किसी आपराधिक मुकदमे को अनुचित रूप से लंबा खींचना अभियुक्त के लिए “मानसिक कारावास” के समान है।

न्यायमूर्ति एन.वी. अंजारिया और ए.एस. चंदुरकर की पीठ ने यह टिप्पणी तब की, जब उसने भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 के तहत दोषी ठहराई गई 75 वर्षीय महिला की सजा में राहत दी।


मामले की पृष्ठभूमि

यह मामला 22 वर्ष पुराना है, जिसमें महिला पर केंद्रीय उत्पाद शुल्क निरीक्षक के पद पर रहते हुए भ्रष्टाचार का आरोप था।

  • निचली अदालत ने महिला को एक वर्ष के कठोर कारावास की सजा सुनाई थी।
  • मद्रास उच्च न्यायालय ने अगस्त 2010 में इस सजा को बरकरार रखा।
  • इसके खिलाफ महिला ने सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की।


सुप्रीम कोर्ट का फैसला

  • दोषसिद्धि को बरकरार रखते हुए, अदालत ने महिला की सजा को घटाकर वही अवधि कर दी, जो वह पहले ही जेल में बिता चुकी थी।
  • हालांकि, अदालत ने जुर्माने की राशि में ₹25,000 की वृद्धि की।
  • अदालत ने कहा, “22 वर्षों तक मुकदमे का बोझ उठाना स्वयं में ही एक सजा के समान है।”


महत्वपूर्ण अवलोकन

पीठ ने स्पष्ट किया कि:

किसी व्यक्ति को दशकों तक आपराधिक कार्यवाही में उलझाए रखना उसकी स्वतंत्रता, गरिमा और मानसिक शांति पर गंभीर आघात है। यह ‘मानसिक कारावास’ के समान कष्टकारी है।

यह फैसला इस बात पर जोर देता है कि न्याय में अनावश्यक देरी न केवल अभियुक्त के मौलिक अधिकारों का हनन है, बल्कि त्वरित न्याय की संवैधानिक भावना के भी विपरीत है।