चेक बाउंस के मामले देश की अदालतों में सबसे ज़्यादा संख्या में लंबित रहते हैं। ऐसे मामलों को निपटाने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने पहले दामोदर एस. प्रभु बनाम सैयद बाबालाल केस में कुछ नियम बनाए थे। उन नियमों के मुताबिक, अगर आरोपी और शिकायतकर्ता आपस में समझौता कर लेते हैं तो अलग-अलग स्तर की अदालत में कुछ प्रतिशत जुर्माना देकर मामला खत्म किया जा सकता था।
लेकिन अब हाल ही में, संजाबीज तारी बनाम किशोर एस. बोरकर केस में सुप्रीम कोर्ट ने इन नियमों में बदलाव किया है। वजह साफ है—पिछले कुछ सालों में ब्याज दरें कम हुई हैं और ढेरों चेक बाउंस केस अब भी अटके पड़े हैं। इसलिए कोर्ट ने ज़रूरी समझा कि पुराने नियमों को हल्का किया जाए, ताकि समझौते के रास्ते आसान बनें।
- अगर आरोपी ट्रायल में अपने गवाह पेश करने से पहले चेक की रकम चुका देता है, तो उस पर कोई जुर्माना नहीं लगेगा।
- अगर गवाह पेश करने के बाद लेकिन ट्रायल कोर्ट के फैसले से पहले भुगतान करता है, तो चेक की रकम के ऊपर 5% अतिरिक्त राशि देनी होगी।
- अगर मामला सेशन कोर्ट या हाईकोर्ट में है, तो 7.5% अतिरिक्त राशि देनी होगी।
- और अगर समझौता सुप्रीम कोर्ट के सामने होता है, तो ये राशि 10% तक होगी।
यानी पहले की तुलना में यह बोझ आधा कर दिया गया है। पहले जहां सुप्रीम कोर्ट में 20% तक जुर्माना देना पड़ता था, अब सिर्फ 10% देना होगा।
कोर्ट ने यह भी कहा कि अगर शिकायतकर्ता चेक राशि से ज्यादा वसूली की मांग करता है, तो मजिस्ट्रेट अपने अधिकारों का इस्तेमाल करके या तो आरोपी को दोषी मान सकता है, या फिर CrPC की धारा 255 और BNSS की धारा 278 के तहत विकल्पों पर विचार कर सकता है। ज़रूरत पड़ने पर परिवीक्षा अधिनियम, 1958 का लाभ भी दिया जा सकता है।
क्योंकि यह चेक बाउंस मामलों को जल्दी सुलझाने का रास्ता खोलता है, और आरोपी को भी राहत देता है। वहीं, शिकायतकर्ता को मूल धनराशि के साथ कुछ अतिरिक्त मुआवज़ा भी मिल जाता है।
सुप्रीम कोर्ट का मकसद है: कम झंझट, जल्दी न्याय, और दोनों पक्षों के लिए संतुलित समाधान।