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October 17, 2025

बाल संरक्षण की ढाल "जब त्याग बन जाता है दंडनीय अपराध"

 



जब माता-पिता या अभिभावक, जिन्हें बच्चों की रक्षा करनी चाहिए, उसे असहाय छोड़ देते हैं — तो भारतीय न्याय संहिता की धारा 93 इसी अमानवीय कृत्य को दंडित करती है।


⚖️ कानूनी प्रावधान
 


यदि कोई पिता, माता या संरक्षक, जो 12 वर्ष से कम उम्र के बच्चे की देखभाल करता है, उस बच्चे को किसी स्थान पर जानबूझकर छोड़ देता है या त्याग देता है, इस इरादे से कि वह बच्चा सदा के लिए छोड़ दिया जाए,
तो ऐसा व्यक्ति सात वर्ष तक की कैद, जुर्माना, या दोनों से दंडित किया जा सकता है।


यह कानून सिर्फ़ परित्याग को अपराध नहीं मानता, बल्कि इसके पीछे के इरादे (intention) को भी देखता है।
अगर किसी ने बच्चे को छोड़ने का ऐसा कार्य इस सोच के साथ किया कि वह दोबारा कभी लौटकर न आए — तो यह “पूरी तरह से परित्याग” (wholly abandoning) कहलाता है।


⚖️ स्पष्टीकरण


अगर इस परित्याग के कारण बच्चे की मृत्यु हो जाती है, तो आरोपी पर केवल यह धारा नहीं लगेगी, बल्कि उसे हत्या (Murder) या आपराधिक मानव वध (Culpable Homicide) के लिए भी मुकदमे का सामना करना पड़ सकता है।


⚖️ Conclusion


कानून यह स्पष्ट संदेश देता है —
माता-पिता होना एक जिम्मेदारी है, अधिकार नहीं।
बच्चे को त्यागना, उसे जीवन के खतरे में डालना है — और यह अपराध है।


धारा 93 हमें याद दिलाती है कि समाज की संवेदनशीलता की शुरुआत, सबसे पहले अपने बच्चों की सुरक्षा से होती है।


October 15, 2025

गर्भ में पल रहे जीवन की कानूनी सुरक्षा

 


   

भारतीय न्याय संहिता की धारा 92 उस स्थिति पर लागू होती है जब किसी व्यक्ति के कृत्य से गर्भ में पल रहे “जीवित भ्रूण” (quick unborn child) की मृत्यु हो जाती है। यह धारा बताती है कि भ्रूण का जीवन भी उतना ही मूल्यवान है जितना किसी जन्मे हुए व्यक्ति का।


यदि कोई व्यक्ति ऐसा कार्य करता है जो,  परिस्थितियों में, यदि किसी व्यक्ति की मृत्यु कर देता, तो मानव वध (culpable homicide) कहलाता — और वही कार्य गर्भ में पल रहे भ्रूण की मृत्यु का कारण बनता है, तो ऐसे अपराधी को 10 वर्ष तक के कारावास और जुर्माने से दंडित किया जाएगा।   धारा 92, भारतीय न्याय संहिता 2023 


⚖️ उदाहरण

मान लीजिए कोई व्यक्ति किसी गर्भवती स्त्री को मारने के उद्देश्य से चोट पहुँचाता है। स्त्री तो जीवित बच जाती है, लेकिन उसके गर्भ में पल रहा बच्चा मर जाता है।
इस स्थिति में वह व्यक्ति इस धारा के अंतर्गत दोषी माना जाएगा, क्योंकि उसके कृत्य से एक जीवन समाप्त हुआ, भले ही वह जन्म से पहले था।

⚖️ कानूनी दृष्टि से महत्व


यह धारा यह संदेश देती है कि कानून भ्रूण के जीवन को भी मानव जीवन का दर्जा देता है।
यह न केवल गर्भवती स्त्री की सुरक्षा सुनिश्चित करती है, बल्कि उस नए जीवन की भी जो अभी जन्म नहीं ले पाया है।


धारा 92 न्याय और नैतिकता दोनों के बीच पुल का काम करती है। यह बताती है कि जीवन की सुरक्षा का अधिकार गर्भ में पलते भ्रूण से शुरू होता है, और उसकी मृत्यु भी कानून की नज़र में गंभीर अपराध है।


October 13, 2025

झूठी खबरों को फैलाने की सज़ा”

 


“ झूठी खबरों को फैलाने की सज़ा ”

  धारा 353, भारतीय न्याय संहिता 2023


आज सोशल मीडिया के माध्यम से फेक न्यूज का प्रसार तेजी से होता है।
कई बार धार्मिक या राजनीतिक मुद्दों पर फैलाई गई गलत जानकारी हिंसा या दंगे तक पहुंच जाती है।

ऐसे में भारतीय न्याय संहिता (BNS) की धारा 353  समाज में शांति और एकता बनाए रखने का कानूनी हथियार है।


⚖️ धारा 353 का उद्देश्य

इस धारा का मुख्य उद्देश्य है —
“झूठी या भ्रामक जानकारी फैलाकर समाज या राज्य की शांति को भंग करने वालों पर नियंत्रण।”
यह प्रावधान उन सभी पर लागू होता है जो किसी भी माध्यम से
मौखिक, लिखित, या इलेक्ट्रॉनिक — गलत सूचना या अफवाह फैलाते हैं।


⚖️ Section 353 (1): सेना और सार्वजनिक शांति पर प्रभाव


यदि कोई व्यक्ति झूठी या भ्रामक जानकारी फैलाता है जिससे —सेना, नौसेना या वायुसेना के कर्मियों में अनुशासनहीनता या विद्रोह फैल सके,

जनता में डर, अफरातफरी या अपराध की प्रवृत्ति पैदा हो,

या किसी समुदाय को दूसरे के विरुद्ध भड़काया जाए,

तो ऐसे व्यक्ति को तीन वर्ष तक की कैद, जुर्माना, या दोनों हो सकते हैं।


⚖️ Section 353(2): नफरत फैलाने वाले बयान

 

यदि कोई व्यक्ति धर्म, जाति, भाषा, निवास या जन्मस्थान के आधार पर शत्रुता, घृणा या वैमनस्य पैदा करने के लिए झूठी जानकारी फैलाता है,
तो यह भी अपराध है।
इसके लिए भी तीन वर्ष तक की सज़ा या जुर्माना या दोनों का प्रावधान है।


⚖️ Section 353(3): धार्मिक स्थलों पर अपराध

 

यदि यह अपराध किसी पूजा स्थल या धार्मिक सभा में किया गया हो,
तो सज़ा और भी कठोर है —
पाँच वर्ष तक की कैद और जुर्माना दोनों।


⚖️ अपवाद (Exception)


यदि कोई व्यक्ति सच्चे विश्वास और सद्भावना में कोई सूचना देता है,
और उसे झूठा मानने का कोई कारण नहीं था,
तो उसे इस धारा के अंतर्गत दोषी नहीं ठहराया जाएगा।
अर्थात, सद्भावना से की गई गलती अपराध नहीं है।


अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार है, लेकिन उसके साथ जिम्मेदारी भी जुड़ी है।


October 12, 2025

जबरन विवाह या महिला का अपहरण – धारा 87, भारतीय न्याय संहिता 2023

   
Advocate Rahul Goswami,BNS 2023,

आज भी समाज में ऐसे मामले सामने आते हैं जहाँ किसी महिला को उसकी इच्छा के विरुद्ध शादी या अवैध संबंध के लिए बहकाया या जबरन ले जाया जाता है।

भारतीय न्याय संहिता (BNS), 2023 की धारा 87 ऐसे ही अपराधों को रोकने के लिए बनाई गई है।


⚖️ क्या कहती है धारा 


यदि कोई व्यक्ति किसी महिला का अपहरण या बहकाकर ले जाता है, इस नीयत से कि —


● उसे जबरन विवाह करने पर मजबूर किया जाए,

या

● उसे अवैध संबंध में धकेला जाए,

तो यह गंभीर आपराधिक कृत्य माना जाएगा।



⚖️ 🔹 दंड का प्रावधान


इस अपराध के लिए सज़ा का प्रावधान है —

● अधिकतम दस वर्ष तक की कैद और जुर्माना

● यह दंड केवल अपहरण करने वाले पर ही नहीं,

बल्कि उस व्यक्ति पर भी लागू होता है जो धमकी, दबाव या अधिकार का दुरुपयोग करके महिला को किसी स्थान से जाने के लिए मजबूर करता है, यह जानते हुए कि उसे बाद में जबरन विवाह या अवैध संबंध के लिए इस्तेमाल किया जाएगा।



⚖️  कानूनी उद्देश्य


● महिलाओं की इच्छा और स्वतंत्रता की रक्षा करना।

● किसी भी महिला को जबरन विवाह या शारीरिक संबंध के लिए बाध्य करना, केवल उसके सम्मान का नहीं बल्कि उसकी संवैधानिक गरिमा का भी उल्लंघन है।




⚖️ समाज के लिए संदेश


● धारा 87 यह याद दिलाती है कि —

विवाह प्रेम या सहमति से हो सकता है, पर दबाव या छल से नहीं। कानून ऐसे हर व्यक्ति को कठोर सज़ा देता है जो महिला की “ना” को नज़रअंदाज़ कर उसे जबरदस्ती अपने हक में करना चाहता है।

September 30, 2025

. “पारिवारिक समझौते को मिलेगी प्राथमिकता : इलाहाबाद हाईकोर्ट का अहम फैसला”

 


⚖️ संपत्ति विवादों में पारिवारिक समझौते को प्राथमिकता – इलाहाबाद हाईकोर्ट का महत्वपूर्ण निर्णय


पारिवारिक विवाद अक्सर वर्षों तक अदालतों में चलते रहते हैं, जिससे परिवार की एकता टूटती है और आर्थिक संसाधन भी खर्च हो जाते हैं। ऐसे हालात में पारिवारिक समझौता (Family Settlement) न्याय का एक सरल और व्यावहारिक तरीका माना जाता है। हाल ही में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इसी मुद्दे पर महत्वपूर्ण टिप्पणी करते हुए कहा कि यदि सह-पट्टेदारों के बीच वास्तविक और स्वैच्छिक समझौता हुआ है, तो संपत्ति का विभाजन उसी आधार पर होना चाहिए।


⚖️ केस पृष्ठभूमि
  • वाद में पैतृक संपत्ति को लेकर सह-खातेदारों में विवाद था।
  • याचिकाकर्ता ने कहा कि पहले ही मौखिक बंटवारा हो चुका है, लेकिन राजस्व लगान और भूखंडों के सही स्थान को लेकर विवाद बना हुआ है।
  • राजस्व बोर्ड ने कहा कि संपत्ति संयुक्त कब्जे में है, जबकि निचली अदालत ने पारिवारिक समझौते को मान्यता दी।
  • इसी आदेश के खिलाफ रिट याचिका दाखिल की गई।

⚖️ उच्च न्यायालय का अवलोकन


न्यायमूर्ति आलोक माथुर की खंडपीठ ने कहा:

  1. पारिवारिक समझौता वास्तविक और न्यायसंगत होना चाहिए।
  2. यह समझौता स्वेच्छा से होना चाहिए, न कि धोखाधड़ी, दबाव या अनुचित प्रभाव से।
  3. पारिवारिक समझौता मौखिक भी हो सकता है और इसके लिए पंजीकरण आवश्यक नहीं है।

अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि यदि पक्षकारों में इस समझौते को लेकर कोई विवाद नहीं है, तो इसे मान्यता देते हुए कुर्रा (राजस्व अभिलेखों में विभाजन) उसी आधार पर तैयार किया जाए।


⚖️ कानूनी आधार
  • उ.प्र. राजस्व संहिता नियमावली, 2016 के नियम 109(5)(छ) में पारिवारिक समझौते को विधिवत मान्यता दी गई है।
  • सर्वोच्च न्यायालय के पूर्ववर्ती निर्णयों में भी कहा गया है कि पारिवारिक व्यवस्था का उद्देश्य परिवार को लंबी मुकदमेबाजी से बचाना और सौहार्द बनाए रखना है।

⚖️ न्यायालय की सोच


अदालत ने कहा कि “परिवार” शब्द को व्यापक अर्थ में समझना होगा। इसमें केवल नजदीकी रिश्तेदार ही नहीं, बल्कि वे सभी व्यक्ति शामिल हो सकते हैं जिनका कोई दावे का अधिकार बनता है। पारिवारिक समझौते का उद्देश्य भविष्य के विवादों को खत्म करके परिवार को अधिक रचनात्मक कार्यों की ओर अग्रसर करना है।


⚖️ निष्कर्ष


इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इस मामले में स्पष्ट संदेश दिया कि पारिवारिक समझौता अदालतों पर बोझ कम करने, न्याय की सरल उपलब्धता और पारिवारिक सौहार्द बनाए रखने का सर्वोत्तम साधन है। इसलिए यदि समझौता निष्पक्ष, स्वैच्छिक और बिना धोखाधड़ी के हुआ है, तो उसे अदालतों द्वारा प्राथमिकता दी जानी चाहिए।


केस शीर्षक

शहादत अली एवं अन्य बनाम राजस्व बोर्ड, उत्तर प्रदेश एवं अन्य



September 28, 2025

“चेक बाउंस केसों में राहत: अब समझौते पर घटा जुर्माना”

 


 चेक बाउंस के मामले देश की अदालतों में सबसे ज़्यादा संख्या में लंबित रहते हैं। ऐसे मामलों को निपटाने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने पहले दामोदर एस. प्रभु बनाम सैयद बाबालाल केस में कुछ नियम बनाए थे। उन नियमों के मुताबिक, अगर आरोपी और शिकायतकर्ता आपस में समझौता कर लेते हैं तो अलग-अलग स्तर की अदालत में कुछ प्रतिशत जुर्माना देकर मामला खत्म किया जा सकता था।


लेकिन अब हाल ही में, संजाबीज तारी बनाम किशोर एस. बोरकर केस में सुप्रीम कोर्ट ने इन नियमों में बदलाव किया है। वजह साफ है—पिछले कुछ सालों में ब्याज दरें कम हुई हैं और ढेरों चेक बाउंस केस अब भी अटके पड़े हैं। इसलिए कोर्ट ने ज़रूरी समझा कि पुराने नियमों को हल्का किया जाए, ताकि समझौते के रास्ते आसान बनें।

 

⚖️ नए नियम ये कहते हैं:


  1. अगर आरोपी ट्रायल में अपने गवाह पेश करने से पहले चेक की रकम चुका देता है, तो उस पर कोई जुर्माना नहीं लगेगा।
  2. अगर गवाह पेश करने के बाद लेकिन ट्रायल कोर्ट के फैसले से पहले भुगतान करता है, तो चेक की रकम के ऊपर 5% अतिरिक्त राशि देनी होगी।
  3. अगर मामला सेशन कोर्ट या हाईकोर्ट में है, तो 7.5% अतिरिक्त राशि देनी होगी।
  4. और अगर समझौता सुप्रीम कोर्ट के सामने होता है, तो ये राशि 10% तक होगी।

यानी पहले की तुलना में यह बोझ आधा कर दिया गया है। पहले जहां सुप्रीम कोर्ट में 20% तक जुर्माना देना पड़ता था, अब सिर्फ 10% देना होगा।


कोर्ट ने यह भी कहा कि अगर शिकायतकर्ता चेक राशि से ज्यादा वसूली की मांग करता है, तो मजिस्ट्रेट अपने अधिकारों का इस्तेमाल करके या तो आरोपी को दोषी मान सकता है, या फिर CrPC की धारा 255 और BNSS की धारा 278 के तहत विकल्पों पर विचार कर सकता है। ज़रूरत पड़ने पर परिवीक्षा अधिनियम, 1958 का लाभ भी दिया जा सकता है।


⚖️ इस फैसले का प्रभाव


क्योंकि यह चेक बाउंस मामलों को जल्दी सुलझाने का रास्ता खोलता है, और आरोपी को भी राहत देता है। वहीं, शिकायतकर्ता को मूल धनराशि के साथ कुछ अतिरिक्त मुआवज़ा भी मिल जाता है।

 सुप्रीम कोर्ट का मकसद है: कम झंझट, जल्दी न्याय, और दोनों पक्षों के लिए संतुलित समाधान।



September 21, 2025

“संपत्ति विवादों में डबल रजिस्ट्री: जिम्मेदार कौन?” विक्रेता, रजिस्ट्रार और खरीदार के अधिकार

 



⚖️ संपत्ति पर डबल रजिस्ट्री : एक गंभीर कानूनी समस्या


भारत में भूमि व संपत्ति के विवादों में सबसे पेचीदा मामला तब खड़ा होता है जब एक ही ज़मीन की दोहरी रजिस्ट्री (Double Registration) हो जाती है। यानी विक्रेता पहले किसी एक व्यक्ति को ज़मीन बेच चुका है और फिर उसी संपत्ति की दोबारा बिक्री किसी अन्य को कर देता है। यह स्थिति केवल खरीदारों के लिए नहीं बल्कि प्रशासनिक स्तर पर भी गंभीर लापरवाही मानी जाती है।


⚖️ रजिस्ट्री दोबारा कैसे हो जाती है?

कानून के अनुसार जब कोई संपत्ति एक बार वैध रूप से रजिस्टर्ड हो जाती है, तो उसी संपत्ति की पुनः रजिस्ट्री होना नहीं चाहिए। इसके बावजूद यह समस्या तीन कारणों से देखने को मिलती है—

  1. धोखाधड़ी (Fraud) : विक्रेता जानबूझकर संपत्ति बार-बार बेचता है।
  2. लिपिकीय त्रुटि (Clerical Error) : रजिस्ट्रार कार्यालय में रिकॉर्ड मिलान सही ढंग से न होने पर।
  3. मिलीभगत : कुछ मामलों में रजिस्ट्रार की लापरवाही या संदेहास्पद भूमिका भी सामने आती है।

⚖️ ज़िम्मेदारी किसकी?
  • रजिस्ट्रार कार्यालय : रजिस्ट्रार का दायित्व है कि पहले से दर्ज रजिस्ट्री का मिलान करके ही नई एंट्री करे। यदि यह नहीं होता तो यह प्रशासनिक लापरवाही है।
  • विक्रेता : जिसने एक ही ज़मीन दो बार बेची, उस पर सीधे तौर पर धोखाधड़ी (Cheating) और छल का आरोप बनता है।

⚖️ कब्ज़ा किसके पास रहेगा?

सर्वोच्च न्यायालय ने अपने कई निर्णयों में यह स्पष्ट किया है कि—

  • पहली वैध बिक्री ही प्रभावी मानी जाएगी।
  • दूसरी रजिस्ट्री कानूनन शून्य (Void) हो जाती है।
  • यदि पहला खरीदार कब्ज़े में है तो उसका हक मज़बूत होगा।

⚖️ उपाय और कानूनी प्रावधान
  1. दीवानी वाद (Civil Suit) : पीड़ित पक्ष दूसरी रजिस्ट्री को निरस्त कराने और अपने स्वामित्व की घोषणा (Declaration of Title) के लिए वाद दायर कर सकता है।
  2. फौजदारी कार्यवाही (Criminal Action) : यदि धोखाधड़ी सिद्ध हो तो भारतीय न्याय संहिता (BNS) की धारा 319 (धोखाधड़ी) और संबंधित धाराओं के तहत आपराधिक मुकदमा चलाया जा सकता है।
  3. रजिस्ट्री रद्द करना : न्यायालय के आदेश से दूसरी बिक्री रद्द की जा सकती है।
  4. क्षतिपूर्ति (Recovery Suit) : जिस पक्ष को नुकसान हुआ है वह न्यायालय से हर्जाना (Damages) मांग सकता है।

⚖️ निष्कर्ष


डबल रजिस्ट्री सिर्फ तकनीकी चूक नहीं बल्कि गंभीर कानूनी अपराध है। खरीदार को सतर्क रहना चाहिए कि रजिस्ट्री से पहले भूमि का रिकॉर्ड, एन्कम्ब्रेंस सर्टिफिकेट और म्यूटेशन एंट्री सही ढंग से जांचे। वहीं, सरकार और रजिस्ट्रार की भी जिम्मेदारी है कि इस तरह की घटनाएं रोकने के लिए डिजिटल रिकॉर्ड सिस्टम और पारदर्शिता सुनिश्चित की जाए।



September 14, 2025

“वसीयत, बैनामा और दान पत्र में हसिया गवाह Hostile" । दस्तावेज़ का execution साबित कैसे?

 


⚖️ जब Attesting Witness (हसिया गवाह) Hostile हो जाए: कानूनी उपाय 


जब दस्तावेज (जैसे वसीयत, gift deed, sale deed), का निष्पादन करने वाले व्यक्ति की मृत्यु हो जाए या किसी कारण से मौजूद न रहे तो दस्तावेज़ की वैधता साबित करने में attesting witness (हसिया गवाह) की भूमिका बेहद अहम होती है। ऐसे दस्तावेज़ जो कानून के अनुसार attested होने चाहिए  उनकी प्रामाणिकता अक्सर गवाह के माध्यम से सिद्ध की जाती है।

लेकिन सवाल उठता है – यदि गवाह hostile हो जाए या इनकार कर दे, तो क्या होगा? भारतीय साक्ष्य अधिनियम (BSA) की धारा 70 इस स्थिति को स्पष्ट रूप से संबोधित करती है।


⚖️  Hostile या Forgetful Witness की स्थिति
  • गवाह इनकार करता है कि उसने दस्तावेज़ को देखा या हस्ताक्षर की पुष्टि की।
  • या कहता है कि उसे याद नहीं कि दस्तावेज़ किस समय निष्पादित हुआ।
  • ऐसे में दस्तावेज़ के execution को सीधे सिद्ध करना मुश्किल हो जाता है।

⚖️ धारा 70 के तहत कानूनी उपाय


धारा 70 यह अनुमति देती है कि यदि attesting witness निष्पादन (execution) को सिद्ध करने में मदद न कर सके, तो “अन्य साक्ष्य” (Other Evidence) के माध्यम से दस्तावेज़ की प्रामाणिकता सिद्ध की जा सकती है।


⚖️ अन्य साक्ष्य के विकल्प
  1. हस्तलेख विशेषज्ञ (Handwriting Expert)

    • दस्तावेज़ पर निष्पादक और गवाह के हस्ताक्षर की पहचान करवा सकते हैं।
    • Expert गवाही से अदालत को पता चलता है कि दस्तावेज़ वास्तव में संबंधित व्यक्ति ने निष्पादित किया।
  2. दस्तावेज़ लेखक/लिपिक (Scribe) की गवाही

    • जिसने दस्तावेज़ लिखा या तैयार किया, वह गवाही देकर दस्तावेज़ के execution की पुष्टि कर सकता है।
  3. परिस्थितिजन्य साक्ष्य (Circumstantial Evidence)

    • जैसे स्टाम्प पेपर की खरीदारी, दस्तावेज़ तैयार होने की तारीख, पक्षकार की व्यवहारिक गतिविधियाँ।
    • यह दर्शाता है कि निष्पादन वास्तविक था।
  4. पार्टी का स्वीकृति/Admission

    • यदि निष्पादक स्वयं दस्तावेज़ के execution को स्वीकार करता है, तो वह भी पर्याप्त साक्ष्य माना जाता है (धारा 69 BSA)।

⚖️ महत्त्व
  • दस्तावेज़ की वैधता में बाधा नहीं आती।
  • कानून लचीलापन देता है, ताकि hostile witness के बावजूद execution सिद्ध किया जा सके।
  • न्यायालय परिस्थितियों के अनुसार अन्य साक्ष्य स्वीकार करता है।

⚖️ उदाहरण

मान लीजिए:

  • X ने जमीन का sale deed बनाया।
  • Attesting witness Y अदालत में कह देता है कि “मुझे याद नहीं कि X ने हस्ताक्षर किए।”
  • अब अदालत handwriting expert, scribe, और X के conduct (जैसे जमीन का कब्जा लेने के बाद व्यवहार) को देखकर निष्पादन सिद्ध कर सकती है।

⚖️ ✅ निष्कर्ष


धारा 70 BSA यह सुनिश्चित करती है कि attesting witness hostile होने पर भी दस्तावेज़ की प्रामाणिकता साबित की जा सके

  • यह न्यायिक प्रक्रिया में बाधा नहीं डालता।
  • दस्तावेज़ के execution को सिद्ध करने के लिए विविध प्रकार के साक्ष्य स्वीकार्य हैं।


September 13, 2025

अभियुक्त का अच्छा चरित्र ,क्या कोर्ट में बचाव का सहारा बन सकता है?

 


⚖️ भारतीय साक्ष्य अधिनियम (BSA) की धारा 47

मूल प्रावधान:

दंड प्रक्रिया (Criminal Proceedings) में यह तथ्य कि अभियुक्त (Accused) का चरित्र अच्छा है, प्रासंगिक (Relevant) है।


🔹 

क्रिमिनल मामलों में जब किसी व्यक्ति पर अपराध का आरोप लगाया जाता है, तब उसका सदाचार / अच्छा चरित्र न्यायालय के समक्ष प्रासंगिक माना जाएगा।
👉 अर्थात यदि अभियुक्त का चरित्र समाज में अच्छा, ईमानदार और अपराधविरहित माना जाता है, तो यह तथ्य उसके पक्ष में गिना जाएगा।


🔹 क्यों प्रासंगिक है?

  • आपराधिक न्याय में अभियुक्त को “निर्दोष मानने का सिद्धांत” (Presumption of Innocence) प्राप्त है।
  • यदि अभियुक्त का चरित्र अच्छा है, तो यह उसके विरुद्ध आरोप की संभावना को कम कर सकता है।
  • इससे अभियुक्त को लाभ मिलता है, जबकि बुरे चरित्र को सामान्य रूप से अभियुक्त के विरुद्ध इस्तेमाल नहीं किया जाता (क्योंकि यह उसे पूर्वाग्रहित करेगा)।

🔹 उदाहरण (Illustration):

  1. A पर चोरी का आरोप है। यदि यह सिद्ध किया जाए कि A लंबे समय से एक ईमानदार व्यापारी है और समाज में उसकी प्रतिष्ठा सदाचारी व्यक्ति की है, तो यह तथ्य उसके पक्ष में प्रासंगिक होगा।
  2. B पर हत्या का आरोप है। यदि यह सिद्ध किया जाए कि B का आचरण सदा शांतिप्रिय और नैतिक रहा है, तो यह तथ्य अदालत में उसके बचाव में गिना जाएगा।

🔹 जोड़ने का कारण:

  • आपराधिक न्याय प्रणाली अभियुक्त को बचाव का पूरा अवसर देती है।
  • अदालत को यह समझने में मदद मिले कि क्या अभियुक्त की अच्छे चरित्र की प्रवृत्ति उस पर लगे अपराध के आरोप से मेल खाती है या नहीं।
  • यह प्रावधान अभियुक्त को अनुचित पूर्वाग्रह से बचाता है।

⚖️ निष्कर्ष:
धारा 47 यह सिद्धांत स्थापित करती है कि क्रिमिनल मामलों में अभियुक्त का अच्छा चरित्र साक्ष्य के रूप में प्रासंगिक होता है और उसे लाभ पहुँचा सकता है।


September 09, 2025

Section 1 & 2 CHAPTER 1 BSA 2023

 


भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 (Bharatiya Sakshya Adhiniyam, 2023)
अध्याय – I (प्रारंभिक)
धारा 1 : संक्षिप्त नाम, लागू क्षेत्र और प्रवर्तन


धारा 1 की व्याख्या हिंदी में

धारा 1 में तीन मुख्य बिंदु (Essentials) दिए गए हैं :


(1) अधिनियम का संक्षिप्त नाम

"This Act may be called the Bharatiya Sakshya Adhiniyam, 2023."

</>

🔹 अर्थ – इस अधिनियम का नाम भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 रखा गया है।
🔹 महत्त्व – जब भी साक्ष्य से संबंधित मामलों में इस कानून का हवाला दिया जाएगा, तो इसे इसी नाम से संदर्भित किया जाएगा।


(2) लागू क्षेत्र

<>

"It applies to all judicial proceedings in or before any Court, including Courts-martial,
but not to affidavits presented to any Court or officer, nor to proceedings before an arbitrator
."

🔹 अर्थ

  • यह अधिनियम सभी न्यायिक कार्यवाहियों पर लागू होगा, जो किसी भी न्यायालय के समक्ष लंबित हों।
  • यह सैन्य न्यायालयों (Courts-Martial) पर भी लागू होगा।
  • किन पर लागू नहीं होगा
    1. हलफ़नामों (Affidavits) पर लागू नहीं होगा।
    2. मध्यस्थ (Arbitrator) के समक्ष चल रही कार्यवाहियों पर भी लागू नहीं होगा।

🔹 कारण

  • हलफ़नामों में तथ्य शपथपूर्वक प्रस्तुत किए जाते हैं, इसलिए वहाँ अलग प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती।
  • मध्यस्थ (Arbitrator) की कार्यवाही न्यायिक नहीं बल्कि अर्ध-न्यायिक (quasi-judicial) होती है, इसलिए साक्ष्य अधिनियम वहाँ बाध्यकारी नहीं है।

(3) प्रवर्तन तिथि

"It shall come into force on such date as the Central Government may, by notification in the Official Gazette, appoint."

</>

🔹 अर्थ – यह अधिनियम उसी दिन से प्रभावी होगा, जिसे केंद्रीय सरकार अधिसूचना (Notification) द्वारा राजपत्र (Official Gazette) में प्रकाशित करेगी।
🔹 महत्त्व – जब तक सरकार अधिसूचना जारी नहीं करती, यह अधिनियम लागू नहीं माना जाएगा।


धारा 1 के मुख्य बिंदु (Essentials at a Glance)

बिंदु विवरण
संक्षिप्त नाम भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023
लागू क्षेत्र सभी न्यायालय, कोर्ट-मार्शल सहित
अपवाद (नहीं लागू) हलफ़नामे, मध्यस्थ की कार्यवाही
प्रवर्तन तिथि केंद्र सरकार की अधिसूचना से तय

भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 (Bharatiya Sakshya Adhiniyam, 2023) की धारा 1(2) में साफ़ कहा गया है कि हलफ़नामों (Affidavits) और मध्यस्थता (Mediation / Arbitration) की कार्यवाहियों पर यह अधिनियम लागू नहीं होगा। इसका विधिक कारण (Legal Reasoning) निम्न प्रकार से है:


(A) हलफ़नामों (Affidavits) पर लागू न होने का विधिक कारण

1. साक्ष्य की परिभाषा से संबंधित

  • हलफ़नामा एक लिखित बयान होता है जो शपथ (Oath) पर दिया जाता है और संबंधित व्यक्ति स्वयं तथ्यों की सत्यता की गारंटी देता है।
  • जब कोई तथ्य हलफ़नामे में शपथपूर्वक प्रस्तुत किया गया है, तो अदालत उसे प्रारंभिक रूप से सही मान लेती है
  • इसलिए, हलफ़नामे की सत्यता की जाँच साक्ष्य अधिनियम के तहत नहीं की जाती।

📌 प्रमुख केस लॉ
के.के. वेलायुधन बनाम सुकुमरन (AIR 1991 SC 1083)

"हलफ़नामे में जो तथ्य प्रस्तुत किए जाते हैं, वे शपथ पर आधारित होते हैं। इसलिए साक्ष्य अधिनियम की विस्तृत प्रक्रिया यहाँ लागू नहीं होती।"

2. प्रक्रिया संबंधी प्रावधान

  • सिविल प्रक्रिया संहिता (CPC), 1908 की आदेश XIX (Order XIX) में हलफ़नामों का प्रावधान है।
  • वहाँ स्पष्ट रूप से कहा गया है कि जहाँ अदालत हलफ़नामे को स्वीकार करती है, वहाँ मौखिक साक्ष्य की आवश्यकता नहीं होती।
  • इसीलिए, साक्ष्य अधिनियम की धाराएँ (जैसे जिरह, गवाही की प्रामाणिकता, दस्तावेज़ प्रमाणन) यहाँ लागू नहीं की जातीं।

(B) मध्यस्थता / मेडिएशन (Arbitration / Mediation) पर लागू न होने का विधिक कारण

1. मध्यस्थता न्यायिक कार्यवाही नहीं है

  • मध्यस्थता (Arbitration) और मेडिएशन अर्ध-न्यायिक (Quasi-Judicial) प्रकृति की प्रक्रिया हैं, न कि पूर्ण न्यायिक।
  • साक्ष्य अधिनियम विशेष रूप से न्यायिक कार्यवाहियों के लिए बनाया गया है।
  • इसलिए, मध्यस्थता में पक्षकारों को लचीलापन (Flexibility) दिया गया है, ताकि वे साक्ष्य, दस्तावेज़, और गवाही को सरल तरीक़े से प्रस्तुत कर सकें।

2. विधिक प्रावधान

  • मध्यस्थता एवं सुलह अधिनियम, 1996 (Arbitration and Conciliation Act, 1996) की धारा 19 कहती है:
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“मध्यस्थता न्यायाधिकरण भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (अब 2023) की धाराओं से बाध्य नहीं होगा।”

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इसका उद्देश्य है कि मध्यस्थता प्रक्रिया को तेज़, सरल और कम तकनीकी बनाया जाए।

📌 प्रमुख केस लॉ
Fali S. Nariman बनाम Union of India (2004) 5 SCC 1

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"मध्यस्थता की प्रकृति न्यायिक नहीं, बल्कि समझौते पर आधारित है। इसलिए भारतीय साक्ष्य अधिनियम यहाँ बाध्यकारी नहीं है।"

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मैं आपको भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 (Bharatiya Sakshya Adhiniyam - BSA) की धारा 2 को सरल, विधिक और विस्तारपूर्वक हिंदी में समझाऊँगा। प्रत्येक उपधारा (sub-section) को अलग-अलग समझाते हुए महत्वपूर्ण बिंदुओं को हाइलाइट करूँगा ताकि यह कोर्ट में काम आए।


धारा 2 – परिभाषाएँ (Definitions)

इस धारा में साक्ष्य अधिनियम में प्रयुक्त प्रमुख शब्दों की कानूनी परिभाषाएँ दी गई हैं। अदालत में साक्ष्य की स्वीकार्यता, प्रासंगिकता और प्रमाणिकता तय करने में ये परिभाषाएँ महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।


(a) “Court” (अदालत)

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अर्थ:
“अदालत” में सभी न्यायाधीश, मजिस्ट्रेट और वे सभी व्यक्ति आते हैं जो विधि द्वारा साक्ष्य लेने के लिए अधिकृत हैं।
ध्यान देंअरबिट्रेटर (मध्यस्थ) इसमें शामिल नहीं हैं।

🔹 महत्व: यदि कोई व्यक्ति अदालत द्वारा अधिकृत नहीं है, तो वहाँ दिये गये साक्ष्य BSA के अंतर्गत नहीं आएँगे।


(b) “Conclusive Proof” (निश्चायक प्रमाण)

जब इस अधिनियम के तहत किसी एक तथ्य को किसी अन्य तथ्य का निश्चायक प्रमाण घोषित कर दिया गया है, तो:

  • कोर्ट को इसे अंतिम मानना ही होगा।
  • इसके विरुद्ध कोई साक्ष्य स्वीकार नहीं होगा।

📌 उदाहरण:
यदि जन्म प्रमाणपत्र से यह साबित हो जाए कि A की जन्मतिथि 01.01.2000 है, तो कोई अन्य साक्ष्य यह साबित नहीं कर सकता कि जन्मतिथि कुछ और है।


(c) “Disproved” (असिद्ध)

जब अदालत उपलब्ध साक्ष्यों पर विचार करने के बाद:

  • यह मानती है कि कोई तथ्य अस्तित्व में नहीं है, या
  • यह मानती है कि उसका अस्तित्व अत्यधिक असंभावित है,
    तो वह तथ्य असिद्ध (Disproved) कहलाता है।

(d) “Document” (दस्तावेज़)

कोई भी सामग्री जिस पर किसी विषय को दर्ज, लिखा, छापा, फोटोग्राफ़ किया या डिजिटल रूप से संग्रहीत किया गया हो।

उदाहरण:

  • हाथ से लिखा कागज
  • प्रिंटेड किताब
  • नक्शा या प्लान
  • शिलालेख
  • कार्टून या व्यंग्यचित्र
  • डिजिटल साक्ष्य: ईमेल, सर्वर लॉग, कंप्यूटर/मोबाइल फाइलें, लोकेशन ट्रैक, वॉइसमेल आदि

🔹 महत्व → अब इलेक्ट्रॉनिक और डिजिटल साक्ष्य भी BSA के तहत “दस्तावेज़” माने जाते हैं।


(e) “Evidence” (साक्ष्य)

साक्ष्य दो प्रकार के होते हैं:

  1. Oral Evidence (मौखिक साक्ष्य)
    • गवाह द्वारा अदालत में दिये गये बयान,
    • चाहे वह व्यक्तिगत रूप से हो या इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से।
  2. Documentary Evidence (दस्तावेजी साक्ष्य)
    • कोई भी दस्तावेज़ (फिजिकल या डिजिटल),
    • जिसे अदालत के निरीक्षण हेतु प्रस्तुत किया जाता है।

(f) “Fact” (तथ्य)

तथ्य दो प्रकार के होते हैं:

  1. भौतिक तथ्य → जो इंद्रियों द्वारा महसूस किए जा सकते हैं।
  2. मानसिक स्थिति → व्यक्ति की राय, इरादा, सद्भावना, धोखाधड़ी, भावना आदि।

उदाहरण:

  • “A ने B को गोली मारी” → तथ्य
  • “A ने B की हत्या करने का इरादा किया” → मानसिक तथ्य

(g) “Facts in Issue” (विवादित तथ्य)

वे तथ्य जिनका अस्तित्व या अनस्तित्व तय करना किसी मुकदमे या कार्यवाही के निर्णय के लिए आवश्यक हो।

उदाहरण:
यदि A पर B की हत्या का आरोप है, तो ये facts in issue होंगे:

  • क्या A ने B की हत्या की?
  • क्या A का इरादा था?
  • क्या A ने अचानक उकसावे में हत्या की?
  • क्या A मानसिक रूप से अस्वस्थ था?

(h) “May Presume” (मानने की अनुमति)

जब कानून कहता है कि अदालत मान सकती है कि कोई तथ्य सही है, तो अदालत:

  • चाहे तो इसे सही मान सकती है, या
  • चाहे तो उस पर अतिरिक्त साक्ष्य भी मांग सकती है।

(i) “Not Proved” (अप्रमाणित)

जब कोई तथ्य न तो सिद्ध होता है और न ही असिद्ध, तो वह अप्रमाणित कहलाता है।


(j) “Proved” (सिद्ध)

जब अदालत को उपलब्ध साक्ष्यों से विश्वास हो जाता है कि कोई तथ्य मौजूद है, या

  • उसकी संभावना इतनी अधिक है कि एक सावधान व्यक्ति भी इसे सही मानेगा,
    तो वह तथ्य सिद्ध कहलाता है।

(k) “Relevant” (प्रासंगिक)

कोई तथ्य तब प्रासंगिक माना जाता है जब वह सीधे या अप्रत्यक्ष रूप से मुख्य विवादित तथ्य से जुड़ा हुआ हो

📌 उदाहरण:
हत्या के मुकदमे में आरोपी के मोबाइल लोकेशन का रिकॉर्ड प्रासंगिक साक्ष्य होगा।


(l) “Shall Presume” (अनिवार्य अनुमान)

जब अधिनियम कहता है कि अदालत मान ही लेगी कि कोई तथ्य सही है,

  • तब तक उसे सही माना जाएगा जब तक कोई इसे असिद्ध न कर दे

📌 उदाहरण:

 रजिस्टर्ड डाक का डिलीवरी रिकॉर्ड अदालत मान ही लेती है कि पत्र पहुंचा, जब तक इसका उल्टा साबित न हो।


(2) अन्य अधिनियमों से परिभाषाएँ

यदि किसी शब्द की परिभाषा BSA में नहीं दी गई है, तो उसकी परिभाषा IT Act 2000, BNS 2023 या BNSS 2023 से ली जाएगी।